शनिवार, ११ जुलै, २०२०

तिर्थ बुद्रुक : सातवाहनकालीन बौद्ध केंद्र

संभवतः गौतम बुद्ध के जीवन से संबंधित घटना (सफ़ेद चूना पत्थर में  बना शिल्प)

आज से लगभग १८०० साल पूर्व वर्तमान महाराष्ट्र सहित दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्से पर सातवाहनों का अधिकार था. इनका व्यापार यूरोप के रोमन साम्राज्य के साथ भी हुआ करता था. रोमन साम्राज्य से विभिन्न प्रकार का सामान भारतीय प्रायद्विप के पश्चिमी समुद्री तट पर बने बंदरगाहों तक जहाजों के माध्यम से आया करता था. इन बंदरगाहों से भारत के अंदरूनी प्रदेशों से व्यापारी-सामान रोमन साम्राज्य के लिए निर्यात किया जाता था. हमारे व्यापारी भी इस वैश्विक व्यापार में निपुण थे. मसाले, मणि, सूती कपड़ा तथा अन्य जीवनावश्यक वस्तुओं का लेन-देन व्यापार के माध्यम से हुआ करता था. यह व्यापार सातवाहनकाल में अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुका था. इसी कारण से भड़ोच, शुर्पारक (नाला सोपारा), कल्याण, चौल, ब्रह्मपुरी, भोकरधन, अरिकामेडू आदि व्यापारिक केन्द्रों एवं शहरों का विकास दिन-दूनी रात चौगुनी गति से हो रहा था.

तिर्थ बुद्रुक के निवासी

जीवन के हर अंग जैसे समाज, संस्कृति, धर्म, व्यापार, शिल्पकला एवं स्थापत्य में भी तेजी से विकास हो रहा था. इस समय बौद्ध धर्म का प्रचलन इस प्रदेश में अधिक था. बौद्धों से संबंधित स्तूप, विहार, मठ आदि वास्तुओं का निर्माण द्रुतगति से हो रहा था. भारतीय महाद्वीप में अनेक व्यापारिक मार्गों का निर्माण हो चुका था. या पहले से प्रचलन में रह चुके मार्गों का महत्त्व अब बढ़ चुका था. इनमें से एक मार्ग महाराष्ट्र के मराठवाड़ा (मध्य महाराष्ट्र) क्षेत्र से होकर गुजरता था, जिसे उस समय ‘दक्षिणापथ’ के नाम से भी जाना जाता था. मराठवाड़ा के पैठण और तगर (तेर) नामक समृद्ध केन्द्रों का नाम रोमन साम्राज्य तक पहुँच चुका था.

तेर से प्राप्त मृणमूर्तियाँ (टेराकोटा), तेर (तेर संग्रहालय से साभार)

तेर में सातवाहनों एवं रोमन सम्राज्य से संबंधित अवशेष पाए गए हैं. इनमें सिक्के, मर्तबान, हस्तिदंत से बनी स्त्रीमूर्ति, विभिन्न प्रकार के रोमन दीप आदि वस्तुएँ सम्मिलित थीं. तेर से प्राप्त हस्तिदंत से बनी मूर्ति इटली के पॉंपेई से प्राप्त मूर्ति से मिलती-जुलती है. अब तक तेर के बाद अगले पड़ाव के रूप में कर्नाटक के कलबुर्गी जिले में स्थित ‘सन्नती-कनगनहल्ली’ की चर्चा ही विद्वानों में थीं. लेकिन इन दोनों के बीच भी कुछ केन्द्रों का होना तय था. इसी दिशा में मैंने इस प्रदेश के प्राचीन पुरावशेषों से संबंधित ग्रंथों को पढ़ना एवं इस संबंधित स्थानों को भेंट देने का सिलसिला शुरू कर दिया. इसी प्रक्रिया का परिणाम था- तीर्थ बुद्रुक में नए सिरे से प्राप्त हुए बौद्ध धर्म से संबंधित शिल्प एवं स्तूप के संभावित अवशेषों की महत्त्वपूर्ण खोज.

भिमाशंकर टीला (सातवाहनकालीन स्तूप? के अवशेष), तिर्थ बुद्रुक

तीर्थ बुद्रुक नामक छोटासा गाँव महाराष्ट्र के उस्मानाबाद (प्राचीन धाराशिव) जिले के तुलजापुर तहसील से मात्र ९ किमी की दुरी पर बालाघाट पहाड़ियों की एक पहाड़ी पर स्थित है. 

तिर्थ बुद्रुक गाँव का परिदृश्य

सन २००१ में किसी साधू की कुटिया के लिए यहाँ पर स्थित एक टीले की खुदाई का काम चल रहा था. ग्रामीणों को खुदाई से बड़ी आकर की कुछ ईंटें बरामद हुई. यह काम तत्काल रोका गया. यह खबर हवा की तरह प्रदेश में फ़ैल गई. महाराष्ट्र के पुरातत्त्व विभाग के संचालक ने खबर सुनते ही उक्त स्थान की छान-बीन की. ये ईंटों से निर्मित एक गोलाकृति स्तूप के अवशेष थे (संभवतः यह एक अन्य मनौती स्तूप रहा होगा). उन्होंने बाद में इस संबंधी एक संक्षिप्त टिपण्णी विभाग की पत्रिका में भी छपवाई. ऐसा करते समय उन्होंने वहाँ पर पड़े अन्य महत्त्वपूर्ण पुरावशेषों एवं इस स्थान के प्राचीन महत्त्व की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया. इसके बाद इस स्थान के बारे में कहीं कुछ ख़ास लिखने या सुनने में नहीं मिला.

कालभैरवनाथ मंदिर एवं आस-पास का सामान्य दृश्य, तिर्थ बुद्रुक

सन २००८-०९ में मेरे अपने गाँव अपसिंगा में सातवाहनकालीन अवशेष प्राप्त हुए, जो तिर्थ बुद्रुक से महज १६ किमी की दुरी पर स्थित है. यहाँ एक प्राचीन ढाँचे की रचना मिली, जो संभवतः किसी स्तूप की भी हो सकती है. तत्पश्चात २०१३ में इन अवशेषों पर एक शोधलेख भी प्रकाशित किया गया. 

अपसिंगा (सातवाहनकालीन  पुरास्थल) से प्राप्त ईंटों की संरचना

२०१३ में मैंने तिर्थ बुद्रुक के लगभग १४वीं सदी में निर्मित कालभैरवनाथ मंदिर को भेंट दी. इस मंदिर के प्रांगण में रखे कुछ शिल्प दिखाई पड़े. 

डेक्कन कॉलेज, पुणे में मंदिर एवं स्थापत्य की पढ़ाई का अनुभव यहाँ काम आया. इसी दौरान मैं डेक्कन कॉलेज से पी.एचडी भी कर रहा था. सर्वेक्षण का कार्य सर्वत्र शुरू था. मंदिर के सामने रखे सफ़ेद चूना पत्थर (लाइमस्टोन) में बने शिल्प मुझे कुछ अलग लगे. मैंने आस-पास के क्षेत्र की अधिक छान-बीन की. इसमें मुझे स्तूप के लिए सफ़ेद चूना पत्थर में बने अलंकृत रचनाओं के अवशेष दिखाई पड़े. 

स्तूप के अवशेष, तिर्थ बुद्रुक

यहाँ पर लगभग १३वीं सदी में बने भिमाशंकर टीले पर भी सातवाहनकालीन ईंटे तथा ईंटों से बनी किसी स्थापत्य-रचना के अवशेष दिखाई दिए. यह मंदिर तथा प्राचीन टीला खंडहर में बदल चुके थे. 

प्राचीन टीले पर बने भिमाशंकर मंदिर के अवशेष, तिर्थ बुद्रुक


भिमाशंकर मंदिर के अवशेष, तिर्थ बुद्रुक

इसके बाद कईं बार मैंने इस क्षेत्र का दौरा एवं सर्वेक्षण किया. इसकी विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के बाद मुझे ज्ञात हुआ कि यहाँ पर पड़े शिल्प एवं अन्य अवशेष अमरावती और सन्नती-कनगनहल्ली के स्तूपों से मिलते-जुलते हैं. यहाँ से चूना पत्थर में बने शिल्पों के साथ सातवाहनकालीन मृद्भांड के ठिकरें, घर की छत पर लगाए जाने वाले खपरैल (tiles) तथा पद्म पदक (medallions) भी प्राप्त हुए हैं. 

स्तूप से संबंधित पद्म पदक (Medallion), तिर्थ बुद्रुक

मध्ययुगीन अवशेषों में भिमाशंकर एवं कालभैरवनाथ मंदिर के अवशेष, शिवलिंग, भैरव, महिषासुर मर्दिनी, विष्णु के शिल्प, वीरगल (hero stones), सती शिला, नंदी की प्रतिमाएँ, मंदिर से संबंधित शिलालेख आदि अवशेष प्रमुख हैं.

कालभैरवनाथ का मंदिर, तिर्थ बुद्रुक


भैरव, कालभैरवनाथ मंदिर, तिर्थ बुद्रुक
महिषासुरमर्दिनी, तिर्थ बुद्रुक

मैंने २०१५ में हैदराबाद में संपन्न पुरातत्त्व से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में तिर्थ बुद्रुक के इन पुरावशेषों सहित यहाँ के मध्ययुगीन अवशेषों पर शोधकार्य प्रस्तुत किया था.

वीरगल एवं नाग शिल्प, तिर्थ बुद्रुक

वीरगल (hero stone), तिर्थ बुद्रुक

नंदी, तिर्थ बुद्रुक

तिर्थ बुद्रुक से प्राप्त आद्य ऐतिहासिक अवशेषों का संबंध सातवाहनकाल से था. इस समय इंडो-रोमन व्यापार अपनी चरम सीमा पर था तथा व्यापारियों का आवागमन इस क्षेत्र में हुआ करता था. लगभग इसविसन की १ से ३री सदी में यहाँ चूना पत्थर एवं ईंटों से निर्मित स्तूप का निर्माण कार्य हुआ होगा. संभवतः समृद्ध व्यापर के चलते यह कार्य सफल हुआ था. अबतक दक्षिणापथ के इस व्यापारी मार्ग पर महाराष्ट्र में तेर के बाद भव्य वास्तु के अवशेष प्राप्त नहीं हुए थे. तीर्थ बुद्रुक के स्तुपावशेषों से यह बात सामने आ रही है कि तेर के बाद व्यापारी मार्ग पर तिर्थ बुद्रुक एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था, जो आगे जाकर सन्नती नामक स्थान से जुड़ जाता था, जबकि यह तेर इतनी विस्तृत बस्ती नहीं थी. हालाँकि इसी जिले के सिद्धेश्वर वडगाँव के सिद्धेश्वर मंदिर के पास सातवाहनकालीन एक स्थापत्य रचना प्राप्त हुई है. यहाँ पर इस काल से संबंधित ईंटें बड़ी संख्या में मिलती हैं.

संभवतः स्तूप का टीला, वडगाँव सिद्धेश्वर

तिर्थ बुद्रुक से प्राप्त शिल्प संभवतः गौतम बुद्ध के जीवन से संबंधित है. इसमें एक पुरुष एवं तीन स्त्रियों को दर्शाया गया है. 

स्तूप से जुड़ा चूना पत्थर में बना शिल्प 

हंसपट्टिका, तिर्थ बुद्रुक


इन शिल्पों के लिए प्रयोग किया गया सफ़ेद चूना पत्थर (limestone) दक्षिण महाराष्ट्र में नहीं मिलता. इसलिए अब यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह पत्थर सन्नती-शहाबाद के क्षेत्र से यहाँ व्यापारी मार्ग से लाया गया था. कनगनहल्ली के स्तूप को सजाने के लिए वहाँ से बड़ी तादाद में मिलने वाले सफ़ेद चूना पत्थर का ही इस्तेमाल किया गया था. सातवाहनकालीन अन्य शिल्पों एवं स्थापत्य रचना को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह स्तूप हीनयान मत से संबंधित रहा होगा. यहाँ के शिल्प अमरावती शैली में बनवाए गए हैं. यह स्थान अमरावती शैली में बने शिल्पों का एक महत्त्वपूर्ण उत्तरी केंद्र माना जा सकता है. अपितु, इस प्रकार के कुछ अवशेष तेर नामक स्थान पर भी मौजूद होने के कारण, अब तेर यह स्थान अमरावती शैली में बने शिल्पों के फैलाव की उत्तरी सीमा बताई जा सकती है. तिर्थ बुद्रुक और तेर के शिल्पों की शैली अमरावती होकर उक्त शिल्पों की रचना कनगनहल्ली और अमरावती से थोड़ी सी भिन्न दिखाई देती है. संभवतः इस पर स्थानीय कारीगरी का प्रभाव पड़ा हो.

संभवतः मोर की  आकृति, तिर्थ बुद्रुक


खंडित स्तूप (लाट) के अवशेष


प्राचीन टीले का एक हिस्सा, तिर्थ बुद्रुक



सातवाहनकालीन ईंटों से निर्मित दीवार, तिर्थ बुद्रुक


स्तूप संबंधित अवशेष, तिर्थ बुद्रुक

टीले का एक खुला भाग, तिर्थ बुद्रुक

सातवाहनकालीन स्थापत्य रचना के अवशेष उस्मानाबाद जिले में गड देवदरी, तेर, वडगाँव-सिद्धेश्वर एवं अपसिंगा में भी दिखाई देते हैं. इनमें से वडगाँव और अपसिंगा की स्थापत्य रचना बौद्ध-स्तूप से संबंधित होने के प्रमाण अब तक मौजूद नहीं हैं. 

गड देवदरी का प्राचीन टीला, गडदेवदरी

इन समृद्ध अवशेषों के मिल जाने से ऐतिहासिक दृष्टि से मराठवाड़ा के इस क्षेत्र का महत्त्व बढ़ चुका है तथा तिर्थ बुद्रुक यह स्थान सातवाहनकालीन एक बौद्ध केंद्र के रूप में वैश्विक पटल पर स्थापित होने में मदद मिली है.   

 



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