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गुरुवार, ४ जुलै, २०१९

पंढरपुर के भगवान विट्ठल / Pandharpur Ke Bhagwan Vitthal



महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध देवता विट्ठल जी का मंदिर पंढरपुर (जिला-सोलापुर) में है. जनश्रुति के अनुसार यहाँ के पांडुरंग (विट्ठल) भगवान अट्ठाईस युगों से ईंट पर अपने परमभक्त पुंडलिक की प्रतीक्षा में खड़े हैं. ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम तथा अन्य संत जिस भगवान के दर्शन के लिए व्याकूल हुआ करते थे तथा जिनके नामस्मरण मात्र से इन संतों एवं भक्तों का जीवन सफ़ल हुआ. वह भगवान विट्ठल जी पंढरपुर में युगों-युगों से खड़े हैं. जब कृष्णा नदी की एक उपनदी भीमापंढरपुर में प्रवेश करती है वह अर्धचंद्राकार में बहने लग जाती है तब वह चंद्रभागाकहलाती है.
पंढरपुर को अत्यंत प्राचीन नगर माना जाता है. गोकुल के नटखट बालक, द्वारका के राजा और रुक्मिणी के पति श्रीकृष्ण को ही यहाँ विट्ठलकहा जाता है. द्वारका जैसी सुन्दर नगरी तथा राज्य को छोड़कर भगवान दक्षिण में क्यों पधारे, इस प्रश्न की पुष्टि हेतु एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है. एक बार कृष्ण जी की बचपन की प्रिय सखी राधा उनसे मिलने द्वारका आई. वह सीधे कृष्ण जी के पास पहुँची, तब वे अपनी बचपन की यादों में इतने मग्न हुए कि उन्हें यह भी पता न चला कि रुक्मिणी बहुत देर से उनके पास ही खड़ी हैं. इस व्यवहार से क्रुद्ध होकर वह राजमहल से तेजी से बाहर निकल आईं. वह सबकुछ त्यागकर अपने परिचितों से दूर दक्षिण दिशा की ओर चल पड़ीं. कई दिनों की यात्रा के पश्चात् वह भीमा नदी किनारे पहुँच गईं तथा यहीं पर दिन गुजारने लगीं. कृष्ण जी को जब इस बात का पता चला तो वे अपने सैनिकों सहित रुक्मिणी की खोज में निकल पड़े. कई दिनों की ख़ोजबीन के बाद वे भी भीमा किनारे पहुँच गए. यहीं पर उन्हें रुक्मिणी के फिर से दर्शन हुए. उन्हें देखते ही वह कुछ बोल भी न पाए, केवल स्तब्ध होकर निहारते रहे.
चंद्रभागा नदी का तट, पंढरपुर
इस कथा के साथ-साथ यह भी बताया जाता है कि पुंडलिकनामक एक भक्त अपने माता-पिता की सेवा में हमेशा तल्लीन रहते थे. सेवा-भाव के साथ-साथ वे भगवान श्रीकृष्ण का भी हमेशा नामस्मरण करते रहते थे. एक बार उन्हें प्रभु का साक्षात्कार हुआ. पुंडलिक जी का जीवन सफ़ल हुआ, परन्तु कर्तव्य-दक्षता तथा अपने माता-पिता की सेवा में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. पास ही पड़ी विशाल ईंट आगे सरकाकर उस पर प्रभु को कुछ देर ठहरने की विनती की. पुंडलिक जी का मातृ-पितृ प्रेम देखकर प्रभु भी स्तब्ध रहे. उन्होंने प्रसन्न होकर उन्हें वरदान माँगने के लिए कहा. पुंडलिक जी ने भी अवसर का लाभ उठाकर प्रभु के हमेशा-हमेशा के लिए पंढरपुर ठहरने का वरदान प्राप्त किया. उस समय से प्रभु जी पंढरपुर में रहने लगे.  
कुछ प्रमाणों के अनुसार वैष्णव संत पुंडलिक जी अपने संप्रदाय के प्रचारार्थ कर्नाटक से यहाँ आये थे तथा उन्होंने विट्ठल जी की स्थापना की थी. महाराष्ट्र के महान संत ज्ञानेश्वर ने विट्ठल के बारे में अपने अभंग में उनके कर्नाटक से आने का उल्लेख किया है. (कानडा हो विट्ठलु कर्णाटकु) कुछ भी हो लेकिन अनेक शताब्दियों से विट्ठल जी महाराष्ट्र तथा कर्नाटक की प्रजा के प्रेरणा स्रोत रहे हैं.
पंढरपुर से प्राप्त कुछ शिलालेखों के अनुसार मूल मंदिर का निर्माण बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में कर्नाटक के होयसल राजा वीर सोमेश्वर बल्लालके समय हुआ था. संभवतः पुंडलिक मुनि प्रसिद्ध संत रामानुज के शिष्य थे, जिन्होंने कर्नाटक से आकर महाराष्ट्र में संत-परंपरा की नींव रखी. तत्पश्चात होयसल तथा यादवों के लिए यह स्थान महत्त्वपूर्ण बना. कृष्ण को अपना पूर्वज मानने वाले यादव राजाओं ने इस मंदिर के लिए खुलकर दान-धर्म किया. इसमें राजा रामदेवराय तथा उनके मंत्री हेमाद्री का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है. मंदिर के प्रवेशद्वार पर ही मंगलवेढा के संत चोखामेलातथा संत नामदेवकी समाधियाँ हैं. मंदिर के प्रांगण में विष्णु के वाहन गरुड़ की मूर्ति है. इसके सामने ही सोलह खम्भोंवाला मंडप है. गर्भगृह में पांडुरंग की मनमोहक मूर्ति है.
संत तुकाराम ने पांडुरंग के रूप का वर्णन अपने अभंग में कुछ इस प्रकार किया है-
सुन्दर ते ध्यान उभे विटेवरी. कर कटावरी ठेवोनिया.
तुळशीहार गळा कासे पितांबर. आवडे निरंतर हेची ध्यान.
मकर कुंडले तळपती श्रवणी. कंठी कौस्तुभ मणि विराजित.
तुका म्हणे माझे हेचि सर्वसुख. पाहिन श्रीमुख आवडीने.

(अर्थ- कमर पर हाथ रखकर तथा पवित्र ईंट पर खड़े होकर प्रभु ने ध्यान लगाया है. गले में तुलसी की माला पहने हुए प्रभु का रूप भक्तजनों को परमशांति प्रदान करता है. उनके कानों में मकर कुंडल तथा गले में कौस्तुभ मणियों की माला भी है. प्रभु का यह स्वरुप संत तुकाराम के लिए सभी सुखों से बढ़कर है तथा इस स्वरुप को वे हमेशा निहारते रहना पसंद करेंगे.)
विट्ठल मंदिर से बाहर आते ही व्यंकटेश, लक्ष्मी, रामेश्वर, गणेश, खंडोबा, नागोबा आदि देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं. यहीं पर रुक्मिणी का मंदिर भी है. इसी परिसर में कान्होपात्रातथा संत दामाजीसे सम्बंधित स्थान हैं. पंढरपुर में वर्ष में तीन बार विशाल यात्राओं का आयोजन होता है. बिना किसी औपचारिक आमंत्रण के यहाँ भक्तों का ताँता लगा रहता है. कार्तिकी, आषाढ़ी एकादशी तथा मकर संक्रांति के दिन महाराष्ट्र के कोने-कोने से भक्तगण यहाँ पधारते हैं. हरि-विट्ठलके जयघोष से सारा वातावरण गूंज उठता है.
 संत ज्ञानेश्वर पालखी
पंढरपुर में पुंडलिक मंदिर, संत कैकाडी महाराज मठ, तनपुरे महाराज मठ, गजानन महाराज मठ, गोपालपुर मंदिर, विष्णुपद आदि अन्य धार्मिक स्थल हैं. महाराष्ट्र के प्रमुख बस-स्थानकों से यहाँ सरकारी बस-गाड़ियाँ आती हैं. मिरज-कुर्डूवाडी रेलमार्ग पर पंढरपुर में उतरा जा सकता है. (मंगलवेढा-25 किमी, सोलापुर-68 किमी, शिखर-शिंगणापूर-83 किमी, बार्शी-87 किमी, अक्कलकोट-105 किमी, तुलजापुर-115 किमी, विजयपुरा-121 किमी, दौंड-143 किमी, तेर-150 किमीगाणगापुर-165 किमी, कोल्हापुर-180 किमी, पुणे-209 किमी, आलंदी-225 किमी, शनि-शिन्गनापुर-228 किमी, पैठण-244 किमीगंगाखेड-244 किमी, शिर्डी-273 किमी, औरंगाबाद-302 किमी, नांदेड-322 किमी, नाशिक-344 किमी, मुंबई-357 किमी, हैदराबाद-382 किमी, माहुर-447 किमी, नागपुर-663 किमी)