सोमवार, १५ जुलै, २०१९

शक्तिपीठ तुलजापुर का पर्यटन/ Shaktipith Tuljapur ka paryatan



महाराष्ट्र की कुलदेवी के रूप में माता 'तुलजा भवानी' को पूजा जाता है. महाराष्ट्र के साढ़े तीन शक्तिपीठों में तुलजापुर को प्रमुख स्थान प्राप्त है. यह मराठवाड़ा के धाराशिव (अब उस्मानाबाद) जिले में स्थित है.
'स्कन्द' एवं 'मार्कंडेय' पुराणों में देवी के अवतार संबंधी संदर्भ प्राप्त होते हैं. महिषासुर नामक क्रूर दैत्य का संहार कर माता ने प्रजा को संकटमुक्त किया, इसलिए इन्हें 'महिषासुर–मर्दिनी' भी कहा जाता है. यह वीरों को शक्ति एवं स्फूर्ति प्रदान करानेवाली, सकंटमोचनी, भक्तों की मनोकामनाएँ पूर्ण करनेवाली देवी है. माना जाता है कि मराठा स्वराज्य संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज को सुप्रसिद्ध भवानी तलवार यहीं से प्राप्त हुई थी, जिससे उन्होंने मुग़ल एवं अन्य आक्रमणकारियों से प्रजा की रक्षा की. यहाँ के मराठा पुजारी भक्तगणों की सेवा में हमेशा तत्पर रहते हैं. इनसे प्राप्त दस्तावेजों में शिवाजी महाराज के अलावा छत्रपति शाहू, महादजी सिंधिया, धनाजी जाधव, हम्बीरराव मोहिते, बालाजी बाजीराव आदि महान विभूतियों के यहाँ आने के संदर्भ प्राप्त होते हैं.
छत्रपति शिवाजी महाराज महाद्वार, तुलजाभवानी मंदिर


भवानी मंदिर, नगर के पश्चिमी भाग में पहाड़ी-ढलान पर प्रकृति की गोद में बसा हुआ है. मंदिर परिसर विस्तृत एवं अद्भुत है. मंदिर परिसर में प्रवेश 'शहाजी' या 'जीजामाता' महाद्वारों से किया जा सकता है. इनसे मंदिर की ओर नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनाई गई हैं. यहाँ से उतरते ही बाईं ओर 'कल्लोल तीर्थ' तथा दाईं ओर 'गोमुख तीर्थ' हैं. इसमें स्नान करने की परंपरा प्राचीन समय से है. यहाँ से आगे बढ़ते ही देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं, जिनके दर्शन लेकर हम 'सरदार निम्बालकर' दरवाजे से मुख्य मंदिर प्रांगण में प्रवेश करते हैं. इसी दरवाजे के दोनों ओर गणपति एवं मातंगी देवी के मंदिर हैं. यहाँ से आगे बढ़ते ही होमकुंड एवं मंदिर की विशाल वास्तु का आकर्षक रूप दिख जाता है.

तुलजाभवानी मंदिर

होमकुंड में विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान एवं होम-हवन किये जाते हैं. इसकी वास्तु पर आकर्षक शिखर है, जिस पर ऋषि-मुनियों एवं पशु-पक्षियों की सुंदर मूर्तियाँ बनाई गईं हैं. होमकुंड से आगे ही पीपल का विशाल वृक्ष मंदिर की शोभा बढ़ाता है. मंदिर का शिखर अर्वाचिन है परंतु सभामंड़प में स्थित स्तंभों एवं अन्य वास्तु रचना को देखकर इसकी सुंदरता एवं भव्यता का एहसास किया जा सकता है. सभागृह से ही गर्भगृह में स्थित माता के उज्ज्वल मुखमंडल के दर्शन पाकर अपार शांति एवं पवित्रता की अनुभूति से मनुष्य माता के सामने नतमस्तक हो जाता है. माता की मूर्ति अष्टभुजाधारी है. इस मूर्ति के दोनों ओर मार्कंडेय ऋषि एवं सिंह की प्रतिकृतियाँ हैं, साथ ही महिषासुर वध का दृश्य भी उकेरा गया है. गर्भगृह के सामने रखी गई सिंह की मूर्ति भक्तों का ध्यान अपनी ओर खींच लेती है. यह माता का वाहन है.
गर्भगृह के बाईं ओर माता का शयनगृह है. यहाँ से वापस सभागृह में आते ही 'भवानी शंकर' के दर्शन होते हैं. मंदिर के बाहर प्रदक्षिणा मार्ग में खंडोबा, नरसिंह, दत्तगुरु आदि देवी-देवताओं के मंदिर दृष्टिगोचर होते हैं. इसी मार्ग में मंदिर के पार्श्वभाग में 'शिवाजी महाद्वार' है. यहाँ से 'अराधवाडी' में स्थित भारतीबुवा मठ के दूर से दर्शन होते है. इस मठ के पीछे दूर एक टीले पर खंडोबा का मंदिर भी है, जो दूर से सैलानियों एवं भक्तों का ध्यान आकर्षित करता है.
खंडोबा मंदिर, तुलजापुर

तुलजापुर में हरदिन भक्तों का मेला-सा लगा रहता है. नवरात्रि में विशाल जनसागर का रूप यहाँ देखने मिल जाता है. देश के कोने-कोने से लाखों भक्तगण यहाँ आते रहते हैं.
भवानी मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित पहाड़ी ढलान पर 'घाटशिल' नामक स्थान है. यह स्थान मार्कन्डेय ऋषि तथा प्रभु राम से संबंधित माना जाता है. भक्तगणों की श्रद्धा है कि जब सीता की खोज के लिए राम निकले थे तो उन्हें इसी 'दक्षिणापथ' प्रांत से गुज़रना पड़ा था. यह वही स्थान है जहाँ पार्वती ने सीता का रूप धारण कर राम के एक पत्नित्व की परीक्षा ली थी, जिसमें राम सफ़ल हुए. पार्वती ने प्रसन्न होकर उन्हें दक्षिण का मार्ग दिखाया तथा आशीर्वाद देकर विदा किया.

घाटशिल, तुलजापुर
यहाँ की पहाड़ी से दक्षिण दिशा का दूर तक का क्षेत्र दिखाई देता है. यहाँ से आगेवाली पहाड़ी पर 'पापनाश' तीर्थकुंड हैं जो महान तपस्वी गौतम ऋषि से संबंधित माना जाता है. तुलजापुर परिवेश में रामवरदायिनी, बारालिंग, मातंगी देवी, कालभैरव-टोलभैरव, राम मंदिर, मुद्गलेश्वर आदि मंदिर हैं. 

हनुमान जी, मारुती मंदिर, तुलजापुर
तुलजा भवानी मंदिर के परिवेश में लगभग 13-14 वीं सदी के पुरावशेष भी दिखाई देते हैं.

हाथी शृंखला (लगभग 13 वीं सदी), तुलजापुर
तुलजापुर में जगह-जगह पर मध्यकाल में बनवाई गईं बावड़ियाँ (कुंड) भी हैं. इनमें मंकावती तीर्थ सबसे विशाल है. तुलजापुर में मध्यकाल के 'गधेगल' (Ass-curse stones) एवं कुछ शिलालेख भी हैं.
गधेगल, मारुती मंदिर (कल्याण चावडी के पास), तुलजापुर
तुलजापुर में स्थित मठ एवं मंदिर (तुलजापुर शहर)
सिद्ध गरीबनाथ मठ
माना जाता है कि इस मठ की स्थापना सिद्ध गरीबनाथ ने की थी. वे तुलजा भवानी माता के निस्सीम भक्त थे. इसी मठ में उन्होंने 'हिंगलाज' माता के मंदिर की स्थापना भी की. यहाँ नियमित धूनी प्रज्वलित की जाती है. दशहरे के समय होम-हवन भी किया जाता है. हिंगलाज माता एवं समाधि स्थानों की पूजा पारंपरिक वाद्यों द्वारा नियमित रूप से की जाती है. महंत मावजीनाथ, महंत प्रकाशनाथ, महंत तुकनाथ इस प्रकार मठ की पारंपरिक शिष्य परंपरा है. वर्तमान महंत मावजीनाथ मठाधिपति है. भ्रमण करते हुए आनेवाले साधु-सन्यासियों की व्यवस्था इस मठ में की जाती है. इस मठ में गरीबनाथ जी की समाधि है.

हिंगलाज माता, गरीबनाथ मठ, तुलजापुर
महंत भारती बुवा का मठ
छत्रपति शिवाजी महाद्वार से आराधवाडी के पीछे लगभग डेढ़ किमी की दूरी पर भारती बुवा का मठ है. इस मठ की स्थापना 'रणछोड़ भारती' नामक गोसावी ने 18वीं सदी में की थी. इस मठ में माता के पारंपरिक खेल खेलने की जगह भी है. मठ परिसर में रणछोड़ भारती, गोविन्द भारती, गणेश भारती, गजेन्द्र भारती आदि सज्जनों की समाधियाँ हैं. रणछोड़ भारती, दशनामी गोसावी थे. छत्रपति शाहू ने मठ एवं अन्य विधियों के लिए कुछ गाँव दान में दिए थे.

महंत वाकोजी बुवा का मठ
मंदिर के दक्षिण में स्थित हिस्से में तथा छत्रपति शिवाजी महाद्वार से आगे बाईं ओर यह मठ स्थित है. सभी धार्मिक विधियाँ जैसे– काकड़ आरती, रक्षापूजा, अभिषकों के बाद की धूप आरती एवं अन्य पारंपरिक अधिकार भी इन्हीं के पास है. महंत तुकोजी बुवा वर्तमान में महंत है.

अरण्यगोवर्धन मठ
यह मठ शुक्रवार पेठ में है. इसकी स्थापना महंत तुको जनार्दन जी ने की थीं. यह मठ दशनामी संन्यासी मत से संबंधित है. फिलहाल भावसार क्षत्रिय समाज इसकी व्यवस्था देखता है. इस मठ में प्राचीन मंदिर भी है, जिसमें श्री रामवरदायिनी माता की मूर्ति है. माता के हाथों में विभिन्न शस्त्रास्त्र हैं. माना जाता है कि सीता की ख़ोज पर निकले प्रभु श्रीराम जी यहाँ कुछ देर ठहरे थे. यहाँ से पास ही 'रामदरा' नामक तालाब भी है. 


हमरोजी बुवा मठ
शिवाजी महाराज महाद्वार से बाईं ओर यह मठ स्थित है. यहाँ के मठाधिपति के पास देवी के जमादार खाने की व्यवस्था थी. इन मठों के अलावा 'नारायण गिरी मठ' भी तुलजापुर में स्थित है.

धाकटे तुलजापुर की भवानी माता 
सन 1960 में तुलजापुर शहर से पास ही श्री. रामचंद्र माली जी के खेत में जुताई के समय माता की मूर्ति प्राप्त हुई. गाँववालों ने इस मूर्ति की स्थापना गाँव में ही की. वर्तमान में यह परिसर तुलजापुर का ही एक हिस्सा बन चुका है.

तुलजापुर सड़क मार्ग से समूचे देश से जुड़ा हुआ है. इसी शहर से राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक-211 जाता है. यहाँ आने के लिए नजदीकी रेल-स्टेशन सोलापुर एवं उस्मानाबाद हैं, जहाँ से सरकारी एवं निजी बसों की समुचित व्यवस्था हैं. भक्तगणों के निवास के लिए धर्मशाला तथा लॉज की व्यवस्था भी उपलब्ध है. यहाँ से 'चिवरी' की माता का मंदिर-27 किमी, रामलिंग-40 किमी, खंडोबा मंदिर, अणदूर-28 किमी तथा 'आपसिंगा' नामक प्राकृतिक-स्थल केवल 7 किमी की दूरी पर स्थित है, जो सातवाहन-काल से ही मानव की गतिविधियों का केंद्र रहा है. यहाँ एक गढ़ी एवं भव्य प्रवेशद्वार भी है, जो दर्शनीय है.
भव्य प्रवेशद्वार (वेस), आपसिंगा
तुलजापुर से अन्य प्रसिद्ध स्थानों का अंतर इस प्रकार है-
(धाराशिव-22 किमी, नलदुर्ग-33 किमी, तेर-43 किमी, सोलापुर-48 किमी, बार्शी-51 किमी, अक्कलकोट-65 किमी, लातुर-76 किमी, पंढरपुर-101 किमी, अम्बाजोगाई-106 किमी, बसवकल्याण-112 किमी, कलबुर्गी-145 किमी, गाणगापुर-145 किमी, विजयपुरा-145 किमी, नांदेड-209 किमी, औरंगाबाद-264 किमी, पुणे-275 किमी, शिरडी-293 किमी, हैदराबाद- 298 किमी, मुंबई-438 किमी)

मंगळवार, ९ जुलै, २०१९

तेर की प्राचीन विरासत/ Ter ki Prachin Virasat


आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व वर्तमान में महाराष्ट्र के उस्मानाबाद (धाराशिव) जिले में स्थित 'तेर' विश्वस्तर पर प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र के रूप में जाना जाता था. 'पेरिप्लस ऑफ़ द एरिथ्रीयन सी' नामक प्राचीन रोमन ग्रंथ में इसकी समृद्धि का उल्लेख मिलता है. सातवाहन कालीन प्रतिष्ठाण (पैठण), भोगवर्धन (भोकरधन), जुन्नर, भडोच आदि प्रसिद्ध स्थलों में 'तगर' अथवा 'तेर' प्रसिद्ध रहा है. पुराणों में तेर को 'सत्यपुरी' कहा गया है. यहाँ पर हुए पुरातात्त्विक उत्खननों में रोमन काल से संबंधित विभिन्न प्रमाण पुरावशेष के रूप में पाए गए हैं. इन पुरावशेषों से यह सिद्ध हो चुका है कि प्राचीन काल में तेर का संबंध रोमन साम्राज्य (वर्तमान में यूरोप महाद्वीप का भाग) से था.
पुरातात्त्विक दृष्टि से यह स्थान बहुत ही समृद्ध है. यहाँ जगह-जगह प्राचीन पुरावशेष बिखरे पड़े हैं. इस कारण संपूर्ण तेर क्षेत्र 'राष्ट्रीय संपदा' बन गया है. 
महाराष्ट्र के प्राचीन मंदिरों में यहाँ के मंदिरों का स्थान महत्त्वपूर्ण है. इतना सब कुछ होने के बावजूद भी यह स्थान सामान्य जनता में विट्ठल भक्त संत 'गोरा (गोरोबा काका) कुंभार' के गाँव के रूप में ही अधिक पहचाना जाता है. संत गोरोबाकाका कुंभार, महान संत ज्ञानेश्वर के समकालीन थे. संत मंडली में वे ज्येष्ठ माने जाते हैं. उनके अभंग 'सर्वसंग्रहगाथा' नामक ग्रंथ में मिलते हैं. माना जाता है कि 13 वीं शताब्दी में यह स्थान वैष्णवों का एक महत्वपूर्ण गढ़ बन चुका था. विभिन्न संतों ने इस स्थान की महिमा को नवाज़ा है. धार्मिक आडंबर एवं अंधश्रद्धाओं को उन्होंने अपने पैरों तले रौंदा. वे महाराष्ट्र के अन्य संतों के मार्गदर्शक भी थे. उनके घर-आँगन की नींव आज भी यहाँ दिखाई जाती है. इनके घर को 'राज्य संरक्षित स्मारक' का दर्जा प्राप्त हुआ है. यहाँ से होकर बहनेवाली 'तेरणा' नदी तट पर प्राचीन कालेश्वर मंदिर के पास ही संत गोरा कुंभार का समाधि मंदिर स्थित है. चैत एकादशी से अमावस्या तक यहाँ विशाल यात्रा का आयोजन होता है. इस समय महाराष्ट्र के कोने-कोने से श्रद्धालु आते हैं. 
तेर में स्थित 'त्रिविक्रम मंदिर' वास्तुकला की दृष्टि से भारत के दुर्लभ मंदिरों में से एक है. यह महाराष्ट्र के सबसे प्राचीन मंदिरों में से भी एक है. सातवाहन काल में फली-फूली वास्तुकला का प्रभाव इस मंदिर पर साफ़-साफ़ दिखाई देता है. समूचा मंदिर ईंटों से बनवाया गया है.

त्रिविक्रम मंदिर, तेर 
गर्भगृह में विष्णु भगवान की विशाल एवं सुन्दर मूर्ति है. यह मूर्ति विष्णु के वामन अवतार से संबंधित है, जिसमें वे अपने एक पैर से आकाश को समेट रहे हैं. पास में राजा बलि एवं उनकी पत्नी तथा शुक्राचार्य को भी दिखाया गया है. विष्णु का मुकुट बहुत ही सुंदर है. माना जाता है कि इस मंदिर में प्रसिद्ध संत नामदेव ने भजन-कीर्तन किया था. 

सभामंड़प, त्रिविक्रम मंदिर, तेर
कालेश्वर मंदिर, तेर
यहाँ पर स्थित 'उत्तरेश्वर मंदिर' अपनी ख़ास वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है. इस मंदिर के काठ-दरवाजे पर अप्रतिम कारीगरी की गई है. यह अपने आप में एक अनूठा उदाहरण है. 

उत्तरेश्वर मंदिर, तेर
यह विशिष्ठ प्रकार का दरवाजा तेर के 'लामतुरे संग्रहालय' में सुरक्षित रखा गया है. इस संग्रहालय में प्राचीन काल के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, व्यापारिक जीवन को दर्शानेवाली बहुत सारी वस्तुओं को भी सुरक्षित रखा गया है. यह संग्रहालय दर्शनीय है. सातवाहन एवं रोमन सिक्के, मूर्तियाँ, मणि, टेराकोटा से बनी मूर्तियाँ एवं वस्तुएँ, मर्तबान, स्तुपावशेष आदि पुरावशेष यहाँ देखने मिलते हैं. यहाँ ईंटों से निर्मित लगभग 2000 वर्ष पुराना बौद्ध स्तूप का ढाँचा भी प्राप्त हुआ है. तेर में एक प्राचीन जैन मंदिर भी है.

जैन प्रतिमा, जैन मंदिर, तेर
उपर्युक्त सभी मंदिर, सफ़ेद मिट्टी के टीले, स्तूप आदि रचनाओं को राज्य संरक्षित स्मारकों का दर्जा प्राप्त हुआ है. इस गाँव में पानी पर तैरनेवाली ईंटें भी मिलती हैं. 
प्राचीन पुरातात्विक टीले, तेर
उस्मानाबाद (धाराशिव)

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रविवार, ७ जुलै, २०१९

देहु के संत तुकाराम/ Dehu Ke Sant Tukaram



पुणे से लगभग 34 किमी दूरी पर पर स्थित यह स्थान महान संत 'तुकाराम' के जीवन से जुड़ा हुआ है. पुराने मुंबई-पुणे राष्ट्रीय राजमार्ग से तथा रेलगाड़ी से 'देहु रोड' नामक स्टेशन पर उतरकर यहाँ पहुँचा जा सकता है. पुणे से हरदिन लोकल रेलगाड़ियों की सेवा उपलब्ध है. पुणे तथा पिंपरी-चिंचवड महानगर निगम द्वारा बसों की सुविधा उपलब्ध है. जगद्गुरु तुकाराम महाराज के पावन-स्पर्श से पुनीत हुई इस धरती पर पहुँचते ही मन उस विट्ठल-भक्त की महान भक्ति के प्रति नतमस्तक हो जाता है. भारत के इस महान संत के अनेकों 'अभंग' (पद्य रचनाएँ) आज भी महाराष्ट्र के कोने-कोने में पूरी श्रद्धा एवं भक्तिभाव से गाये जाते हैं. इन अभंगों का अनुवाद दुनिया की कई प्रमुख भाषाओं में किया गया है.

संत तुकाराम, भामचंद्र गुफा
देहुगाँव के प्रमुख मंदिरों में 'विट्ठल मंदिर' इंद्रायणी नदी के तट पर स्थित है. उत्तर महाद्वार से अंदर प्रवेश करते ही गणपति, श्रीराम तथा दीपमालाओं के दर्शन होते है. सभामंड़प से गर्भगृह में पहुँचते ही पांडुरंग भगवान (विष्णु के अवतार) के दर्शन होते है. प्रदक्षिणा मार्ग में हरिहरेश्वर का मंदिर है. प्रदक्षिणा पूर्ण करते ही द्वार के पास तुलसी वृंदावन है. इसी के पास स्थित शिला पर बैठकर संत तुकाराम चिंतन एवं विट्ठल का नामस्मरण करते रहते थें. मंदिर के पीछे 'देऊल घाट' है. मुख्य मंदिर के पास ही तुकाराम महाराज का जन्मस्थान है. यहाँ उनकी पाषण से बनी मूर्ति स्थापित की गई है. देहुगाँव तथा परिवेश में अनेक मंदिर बनाये गए हैं. संत चोखामेला का मंदिर तथा इंद्रायणी तट पर बनवाया गया आधुनिक मंदिर देखने लायक है. 


गाथा मंदिर एवं इंद्रायणी नदी का दृश्य

देहुगाँव से कुछ ही दूरी पर 'भंडारा डोंगर' (पहाड़ी) तथा 'भामचंद्र डोंगर' नामक स्थान हैं, जहाँ तुकाराम अपने भगवान विट्ठल जी का नामस्मरण करते रहते थें. भामचंद्र पहाड़ी पर मानव निर्मित मध्यकालीन गुफाएँ हैं, जिसमें से एक में तुकाराम महाराज का शिल्प भी है. इन गुफा-समूह के आस-पास कुछ समाधियाँ, शिलालेख तथा शिल्प भी बिखरे पड़े हैं. यहाँ की कुछ गुफाओं में वारकरी संप्रदाय के अनुयायी आज भी रहते हैं.
मध्यकालीन गुफा, भामचंद्र पहाड़ी

माना जाता है कि 'घोरावडेश्वर' गुफाओं में भी संत तुकाराम ईश्वर-चिंतन करने आया करते थें.


संत तुकाराम ध्यान गुफा, घोराडेश्वर 
युगपुरुष शिवाजी महाराज और संत तुकाराम महाराज के कारण शक्ति और भक्ति का अद्भुत संगम महाराष्ट्र में अवतरित हुआ. जहाँ आज एक ओर शिवाजी महाराज की गाथा देश को गौरव प्रदान कराती है, तो दूसरी ओर तुकाराम महाराज की भक्ति मानवता का पाठ पढ़ाती है. स्वराज्य-स्थापना में शिवाजी महाराज को संत तुकाराम की आध्यात्मिक शक्ति का भरपूर संबल मिला.
आषाढ़ी एकादशी की यात्रा के निमित्त देहुगाँव से सद्गुरु तुकाराम महाराज का पुष्पों से सुसज्जित रथ हज़ारों भक्तगणों के साथ पंढरपुर के लिए रवाना हो जाता है. यात्रा के दौरान संत तुकाराम के अभंग श्रद्धालुओं में नवचेतना को भर देते हैं मानवता एवं पर्यावरण का संदेश देनेवाले महान संत को विश्व युगों-युगों तक याद रखेगा.
(देहु रोड स्टेशन-7 किमी, आलंदी-15 किमी, चाकण-17 किमी, पुणे-28 किमी, लोनावला-48 किमी, कार्ला की गुफाएँ-39 किमी, मुंबई-131 किमी)





गुरुवार, ४ जुलै, २०१९

पंढरपुर के भगवान विट्ठल / Pandharpur Ke Bhagwan Vitthal



महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध देवता विट्ठल जी का मंदिर पंढरपुर (जिला-सोलापुर) में है. जनश्रुति के अनुसार यहाँ के पांडुरंग (विट्ठल) भगवान अट्ठाईस युगों से ईंट पर अपने परमभक्त पुंडलिक की प्रतीक्षा में खड़े हैं. ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम तथा अन्य संत जिस भगवान के दर्शन के लिए व्याकूल हुआ करते थे तथा जिनके नामस्मरण मात्र से इन संतों एवं भक्तों का जीवन सफ़ल हुआ. वह भगवान विट्ठल जी पंढरपुर में युगों-युगों से खड़े हैं. जब कृष्णा नदी की एक उपनदी भीमापंढरपुर में प्रवेश करती है वह अर्धचंद्राकार में बहने लग जाती है तब वह चंद्रभागाकहलाती है.
पंढरपुर को अत्यंत प्राचीन नगर माना जाता है. गोकुल के नटखट बालक, द्वारका के राजा और रुक्मिणी के पति श्रीकृष्ण को ही यहाँ विट्ठलकहा जाता है. द्वारका जैसी सुन्दर नगरी तथा राज्य को छोड़कर भगवान दक्षिण में क्यों पधारे, इस प्रश्न की पुष्टि हेतु एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है. एक बार कृष्ण जी की बचपन की प्रिय सखी राधा उनसे मिलने द्वारका आई. वह सीधे कृष्ण जी के पास पहुँची, तब वे अपनी बचपन की यादों में इतने मग्न हुए कि उन्हें यह भी पता न चला कि रुक्मिणी बहुत देर से उनके पास ही खड़ी हैं. इस व्यवहार से क्रुद्ध होकर वह राजमहल से तेजी से बाहर निकल आईं. वह सबकुछ त्यागकर अपने परिचितों से दूर दक्षिण दिशा की ओर चल पड़ीं. कई दिनों की यात्रा के पश्चात् वह भीमा नदी किनारे पहुँच गईं तथा यहीं पर दिन गुजारने लगीं. कृष्ण जी को जब इस बात का पता चला तो वे अपने सैनिकों सहित रुक्मिणी की खोज में निकल पड़े. कई दिनों की ख़ोजबीन के बाद वे भी भीमा किनारे पहुँच गए. यहीं पर उन्हें रुक्मिणी के फिर से दर्शन हुए. उन्हें देखते ही वह कुछ बोल भी न पाए, केवल स्तब्ध होकर निहारते रहे.
चंद्रभागा नदी का तट, पंढरपुर
इस कथा के साथ-साथ यह भी बताया जाता है कि पुंडलिकनामक एक भक्त अपने माता-पिता की सेवा में हमेशा तल्लीन रहते थे. सेवा-भाव के साथ-साथ वे भगवान श्रीकृष्ण का भी हमेशा नामस्मरण करते रहते थे. एक बार उन्हें प्रभु का साक्षात्कार हुआ. पुंडलिक जी का जीवन सफ़ल हुआ, परन्तु कर्तव्य-दक्षता तथा अपने माता-पिता की सेवा में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. पास ही पड़ी विशाल ईंट आगे सरकाकर उस पर प्रभु को कुछ देर ठहरने की विनती की. पुंडलिक जी का मातृ-पितृ प्रेम देखकर प्रभु भी स्तब्ध रहे. उन्होंने प्रसन्न होकर उन्हें वरदान माँगने के लिए कहा. पुंडलिक जी ने भी अवसर का लाभ उठाकर प्रभु के हमेशा-हमेशा के लिए पंढरपुर ठहरने का वरदान प्राप्त किया. उस समय से प्रभु जी पंढरपुर में रहने लगे.  
कुछ प्रमाणों के अनुसार वैष्णव संत पुंडलिक जी अपने संप्रदाय के प्रचारार्थ कर्नाटक से यहाँ आये थे तथा उन्होंने विट्ठल जी की स्थापना की थी. महाराष्ट्र के महान संत ज्ञानेश्वर ने विट्ठल के बारे में अपने अभंग में उनके कर्नाटक से आने का उल्लेख किया है. (कानडा हो विट्ठलु कर्णाटकु) कुछ भी हो लेकिन अनेक शताब्दियों से विट्ठल जी महाराष्ट्र तथा कर्नाटक की प्रजा के प्रेरणा स्रोत रहे हैं.
पंढरपुर से प्राप्त कुछ शिलालेखों के अनुसार मूल मंदिर का निर्माण बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में कर्नाटक के होयसल राजा वीर सोमेश्वर बल्लालके समय हुआ था. संभवतः पुंडलिक मुनि प्रसिद्ध संत रामानुज के शिष्य थे, जिन्होंने कर्नाटक से आकर महाराष्ट्र में संत-परंपरा की नींव रखी. तत्पश्चात होयसल तथा यादवों के लिए यह स्थान महत्त्वपूर्ण बना. कृष्ण को अपना पूर्वज मानने वाले यादव राजाओं ने इस मंदिर के लिए खुलकर दान-धर्म किया. इसमें राजा रामदेवराय तथा उनके मंत्री हेमाद्री का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है. मंदिर के प्रवेशद्वार पर ही मंगलवेढा के संत चोखामेलातथा संत नामदेवकी समाधियाँ हैं. मंदिर के प्रांगण में विष्णु के वाहन गरुड़ की मूर्ति है. इसके सामने ही सोलह खम्भोंवाला मंडप है. गर्भगृह में पांडुरंग की मनमोहक मूर्ति है.
संत तुकाराम ने पांडुरंग के रूप का वर्णन अपने अभंग में कुछ इस प्रकार किया है-
सुन्दर ते ध्यान उभे विटेवरी. कर कटावरी ठेवोनिया.
तुळशीहार गळा कासे पितांबर. आवडे निरंतर हेची ध्यान.
मकर कुंडले तळपती श्रवणी. कंठी कौस्तुभ मणि विराजित.
तुका म्हणे माझे हेचि सर्वसुख. पाहिन श्रीमुख आवडीने.

(अर्थ- कमर पर हाथ रखकर तथा पवित्र ईंट पर खड़े होकर प्रभु ने ध्यान लगाया है. गले में तुलसी की माला पहने हुए प्रभु का रूप भक्तजनों को परमशांति प्रदान करता है. उनके कानों में मकर कुंडल तथा गले में कौस्तुभ मणियों की माला भी है. प्रभु का यह स्वरुप संत तुकाराम के लिए सभी सुखों से बढ़कर है तथा इस स्वरुप को वे हमेशा निहारते रहना पसंद करेंगे.)
विट्ठल मंदिर से बाहर आते ही व्यंकटेश, लक्ष्मी, रामेश्वर, गणेश, खंडोबा, नागोबा आदि देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं. यहीं पर रुक्मिणी का मंदिर भी है. इसी परिसर में कान्होपात्रातथा संत दामाजीसे सम्बंधित स्थान हैं. पंढरपुर में वर्ष में तीन बार विशाल यात्राओं का आयोजन होता है. बिना किसी औपचारिक आमंत्रण के यहाँ भक्तों का ताँता लगा रहता है. कार्तिकी, आषाढ़ी एकादशी तथा मकर संक्रांति के दिन महाराष्ट्र के कोने-कोने से भक्तगण यहाँ पधारते हैं. हरि-विट्ठलके जयघोष से सारा वातावरण गूंज उठता है.
 संत ज्ञानेश्वर पालखी
पंढरपुर में पुंडलिक मंदिर, संत कैकाडी महाराज मठ, तनपुरे महाराज मठ, गजानन महाराज मठ, गोपालपुर मंदिर, विष्णुपद आदि अन्य धार्मिक स्थल हैं. महाराष्ट्र के प्रमुख बस-स्थानकों से यहाँ सरकारी बस-गाड़ियाँ आती हैं. मिरज-कुर्डूवाडी रेलमार्ग पर पंढरपुर में उतरा जा सकता है. (मंगलवेढा-25 किमी, सोलापुर-68 किमी, शिखर-शिंगणापूर-83 किमी, बार्शी-87 किमी, अक्कलकोट-105 किमी, तुलजापुर-115 किमी, विजयपुरा-121 किमी, दौंड-143 किमी, तेर-150 किमीगाणगापुर-165 किमी, कोल्हापुर-180 किमी, पुणे-209 किमी, आलंदी-225 किमी, शनि-शिन्गनापुर-228 किमी, पैठण-244 किमीगंगाखेड-244 किमी, शिर्डी-273 किमी, औरंगाबाद-302 किमी, नांदेड-322 किमी, नाशिक-344 किमी, मुंबई-357 किमी, हैदराबाद-382 किमी, माहुर-447 किमी, नागपुर-663 किमी)