सोमवार, ९ सप्टेंबर, २०१९

बदलते परिवेश..../Badalte Parivesh...(संस्मरण)



व्यक्ति के संपूर्ण जीवन पर उसकी बाल्यावस्था से लेकर किशोरावस्था तक का प्रभाव गहराई से पड़ता है. उसकी धारणाएँ, मान्यताएँ, रूचि, दृष्टिकोण काफी हद तक उसके बचपन के अनुभवों की ही देन होती है. 
मैं, आज अपने आपको देखता हूँ तो इन बातों को महसूस करके लगता है कि आज जो भी मेरी रूचि, आदतें, धारणाएँ एवं मान्यताएँ हैं, उन पर मेरे बचपन का असर ही अत्यधिक है. मेरे दृष्टिकोण एवं जीवन जीने के तरीके की बुनियाद मुझे अपने बचपन के दिनों में दिखाई देती है. 
मुझे याद है, बचपन में किस प्रकार से मैं अपने मोहल्ले के दोस्तों के साथ घुल-मिल गया था. वह लुका-छिपी का खेल तथा चोर-पुलिस के खेल में गाँव की तमाम गलियों को ढूँढते हुए अपने आप को बचाना या फिर पुलिस बनकर अपने चोर बने साथी की तलाश में उसे ढूँढने दूर-दूर तक जाना, शायद इसी प्रकार के खेलों से निरीक्षण एवं सूक्ष्म जाँच की दृष्टि आई होगी, जो आज समाज में चौकन्ना रहने के लिए प्रेरित करती  है. 
कुछ दोस्तों के साथ नदियों, पहाड़ों, खेत-खलिहानों तथा खुले विस्तीर्ण मैदानों में घूमना आज पर्यावरण के प्रति विशेष दृष्टिकोण बनाने में सहायता दे रहा है. प्रकृति के प्रति प्रेम एवं रूचि अपने आप बढ़ चुकी है. गाँव के चारों ओर फैली पहाड़ियों के उस पार की दुनिया को झाँककर देखने की इच्छा इतनी तीव्र होती थी कि जिससे नए प्रदेशों को जानने के कौतूहल का विकास होता गया. शायद भूगोल के प्रति रूचि इसी से बढ़ी. आज भौगोलिक विविधता को जानकर विभिन्न प्रदेशों की भिन्नता को मेरा मन स्वीकार कर पाता है. बचपन में अपने घर-आँगन से मेरा मन जैसे-जैसे बढ़ता गया वैसे-वैसे बड़ी लगने वाली दुनिया छोटी-से-छोटी होती गई. कितना अद्भुत है यह परिवर्तन! 
बालाघाट पहाड़ियाँ, अपसिंगा
मामा के गाँव में, नानी का आँचल थामे उनकी गोद में बैठना हो या नाना के सरौते से काटी हुई सुपारी के टुकड़े को खाने की लालसा मन में उत्पन्न होना हो और उनका वह प्यार तथा अपनापन, आज उनके प्रति एवं उनके जैसे अन्य बड़ों के प्रति श्रद्धा को बढ़ाए हुए है. 
आज भी याद है, खेतों की मेड़ों पर बनी पगडंडियों से अकेले डरते-डरते, मवेशियों को खेतों में चराते नाना को ढूंढने तक का वह सफ़र! छोटी-सी उम्र में वह गन्नों के खेतों की आड़ बड़ी डरावनी लगती थी. ..फिर उसके बाद तुअर की खेती की घनी आबादी में गुम हुई पगडण्डी से गुजरना मुश्किल बन जाता था, सोचता हूँ, आज इन्हीं घटनाओं ने प्राकृतिक सुषमा को समझने में मेरी कितनी मदद की है! 
पहाड़ी फलों को तोड़ने के लिए हम बच्चे मैदानों एवं घनी झाड़ियों को रौंदते हुए निकल पड़ते थे. इसी बीच रास्ते में दिखाई देने वाले विभिन्न कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों एवं वनस्पतियों का साथ आज जीवन की आस बन बैठा है. इन सबके प्रति सद्भावना का प्रतीक बन चुका है. 
गाँव की वह चहल-पहल वाली शाम तथा गोधुली! दिन भर परिश्रम करने के बाद खेतों से लौटते हुए किसान-मजदूर, जिनके हाथों में दिखाई देते खेत-खलिहानों से प्राप्त मोरों के पंख या किसान के बेटे के हाथों में खरगोश के किसी बच्चे को देखते हुए मेरा उनके घरों तक जा पहुँचना या खेतों से वापस अपने घर की ओर लौटते अपने परिजनों की राह एकटक होकर देखना, ये सब कुछ-न-कुछ सिखाने वाला ही तो था. वह नन्हा-सा मन न जाने क्या-क्या सीख रहा था, उसे पता नहीं, पर कहीं असर जरूर हो रहा था. 

रजवाड़ा, अपसिंगा
गाँव के इर्द-गिर्द खंडहर पड़े मंदिर तथा रजवाड़ों के गढ़ी के बुर्ज इतिहास के पन्नों को खोलने में सहायक बने. उन्हीं दिनों पहली बार गाँव में प्रविष्ट हुए नए-नए दूरदर्शन का प्रसारण, रामायण और महाभारत के कार्यक्रमों तथा कक्षा दूसरी में पढ़ी छोटी-छोटी कहानियों ने प्राचीन महापुरुषों तथा अच्छाई-बुराई के बारे में सबक भी सिखाया. आज भी राम का नाम लेते ही याद आता है नानी की गोद में बैठकर रात के टिमटिमाते दीपकों के  सामने मंदिर के पुजारी द्वारा रामायण के पाठ सुनने का वह दृश्य! शायद पुजारी के वे बोल मेरे कुछ अधिक समझ नहीं आते थे. लेकिन नानी की रूचि और संयम मेरी रूचि और संयम का कारण बना. इन सबके प्रति जो आकर्षण बना रहा, वह आज भी बरकरार है. 
छोटी कक्षाओं में नयी-नयी किताबों की वह खुशबू एवं स्लेटों के विभिन्न प्रकारों ने सहज ही पाठशाला की ओर आकृष्ट किया. धोती और टोपी पहने गुरुजनों की छवि आज भी आँखों के सामने तैरती रहती है. उनके प्रति जो आदर था आज भी सामान्य मानव से उन्हें अलग बना देता है. 
यादों की पोटली में घर के पास खड़ा वह इमली का विशाल पेड़ भुलाने से भी नहीं भूलता, जिस पर कभी तोते, मोर, गिलहरियाँ तथा बंदरों का तांता लगा रहता था. गर्मियों के दिनों में गली के हर एक छोटे-बड़े सभी का वह अड्डा बन जाया करता था. छोटे-छोटे एवं बड़े बच्चे इसकी घनी छाया में कंचे खेलने का आनंद उठा लेते थे. सचमुच! बचपन के वे दिन कितने आनंददायी थे...
आज, जीवन के वे सभी रुख बदल गए हैं. गाँव की वह गलियाँ बहुत ही छोटी हो गई हैं, लोगों ने अपने घरों के दरवाजे बंद कर रखे हैं. बचपन में हमें समझाने वाले बड़े-बूढ़े दुनिया से विदा ले चुके हैं, इमली का पेड़ कट चुका है और जिस रास्ते पर वह खड़ा था, वह रास्ता गर्मी में झुलस जाता-सा प्रतीत होता है. बच्चे अपने घरों में टेलीविजन के सामने व्यस्त हैं. ट्यूशन्स के बोझ से बोझिल हैं. दूरदर्शन पर लगे क्रिकेट मैचों के दौर को छोड़कर बाकी दिनों मैदान खाली हैं. 

अब हर कोई अपने-आप में मस्त होकर जीता है. हर चीज खरीदनी पड़ती है. दूसरों के खेतों में जाने की मनाही है. खेतों-खलिहानों की जिंदगी छोड़कर बच्चे अब अपने घरों में कैद हैं. गाँव के लोग हर दिन शहर की ओर भागते रहते हैं, कहा जाने लगा है कि किसी के पास 'टाइम' नहीं है. बचे-खुचे बड़े-बूढ़े अपने गाँव में ही अजनबी लगते हैं. 
धन्यवाद प्रभु! हमारा बचपन इससे अलग था. आधुनिकता की चकाचौंध ने मनुष्य को प्रकृति से बहुत दूर कर दिया है....
 (मूलरूप से २०१० में मेरे द्वारा लिखित)











गुरुवार, ५ सप्टेंबर, २०१९

लोनावला दर्शन/Lonavla Darshan


टाइगर्स लिप पॉइंट
भारत के पश्चिम तटीय प्रदेश के समानांतर दक्षिणी गुजरात से लेकर केरल तक ऊँचे-नीचे पर्वतों की विशाल शृंखला फैली हुई है. इसे ‘पश्चिमी घाट’ के नाम से भी जाना जाता है. महाराष्ट्र में इसी पर्वतीय क्षेत्र को ‘सह्याद्री’ कहते है. इस पर्वत की अनूठी जैव-विविधता के कारण इस पर्वत का कुछ क्षेत्र ‘विश्व धरोहर’ के रूप में भी संरक्षित किया जा चुका है. इस पर अनेक सुंदर-सुंदर प्राकृतिक-स्थल फैले हुए हैं, जिनमें तोरनमाल, भीमाशंकर, खंडाला, माथेरान, महाबलेश्वर, पंचगनी, कास पठार के साथ-साथ लोनावला का भी नाम लिया जाता है.
राजमाची पॉइंट
लोनावला महाराष्ट्र के मुंबई और पुणे महानगरों के बीच स्थित छोटा सा नगर है, जो मुंबई से लगभग 96 तथा पुणे से 64 किमी की दूरी पर स्थित है. माना जाता है कि इस प्रदेश में फैली प्राचीन गुफाओं (जिन्हें मराठी में ‘लेणी’ कहा जाता है) के कारण इस स्थान को ‘लोणावळा’ (लोनावला) यह नाम पड़ा. वास्तव में इस प्रदेश में अनेक गुफाएँ खुदवाई गई हैं. कार्ला, भाजा, बेडसा, भंडारा डोंगर, घोराडेश्वर आदि गुफाएँ इसके प्रमाण हैं. इन गुफाओं का निर्माण भी लगभग दो हजार वर्ष पूर्व हुआ हैं. अनेक व्यापारियों ने इन बौद्ध-गुफाओं के निर्माण में अपना सहयोग दिया हुआ था.
इन गुफाओं के अलावा लोनावला शहर से लगभग 20 से 25 किमी की दूरी के अंदर अनेक प्राकृतिक स्थल फैले हुए हैं. इसलिए लोनावला के आस-पास के भू-दृश्यों को देखे बिना यह यात्रा पूरी नहीं होती.

लोनावला ही क्यों?


लोनावला को प्रसिद्धि मिलने के अनेक कारण बताये जा सकते हैं. इनमें महत्वपूर्ण हैं, यहाँ के भू-दृश्य, प्राकृतिक नज़ारे, मन को सहलाने वाली ठंडी-ठंडी हवा, वर्षा ऋतु में प्राप्त वर्षानंद, हरे-भरे वनाच्छादित जंगल, जल से लबालब भरे सरोवर, कल-कल बहते हुए झरने और इसमें स्थित प्राचीन इतिहास से संपन्न अनेकों स्थान आदि. इसलिए यह प्रदेश मुंबई के बॉलीवुड की दुनिया को भी लुभाता रहा है. अनेक भारतीय हिंदी एवं अन्य भाषाओँ की फिल्मों को यहाँ फिल्माया गया. इसकी प्रसिद्धि का एक और कारण इस स्थान की मुंबई और पुणे के बीच की भौगोलिक स्थिति का होना भी है. अंग्रेजों ने भी मुंबई को शेष महाराष्ट्र से जोड़ने के लिए इसी घाटी को सुविधाजनक समझा. यह स्थान ‘स्वर्णिम चतुर्भुज’ (Golden Quadrilateral) बैंगलोर-मुंबई राजमार्ग, पुराने मुंबई-पुणे राजमार्ग तथा एक रेल जंक्शन जो मुंबई और पुणे को जोड़ता है, के कारण भी पर्यटकों के लिए सुविधाजनक बना रहा.

लोनावला शहर

लोनावला शहर सह्याद्री पर्वत के एक कगार पर स्थित है. लोनावला की हवा स्वास्थ्यवर्धक मानी जाती है. शहर के आस-पास सरोवर तथा सुंदर-सुंदर बंगले हैं. लोनावला की मिठाई ‘चिक्की’ भी मशहूर है, यह गुड़ और मूंगफली, तिल, खोपरा, गुड़दानी तथा अन्य तरह-तरह की चीजों के मिश्रण से बनाई जाती है. शहर में स्थित सिद्धेश्वर मंदिर, रेडवुड पार्क, राजमाची पॉइंट, सेलिब्रटी वैक्स म्यूजियम, इमैजिका वाटर पार्क, कैवल्यधाम योग संस्थान आदि स्थल दर्शनीय एवं महत्वपूर्ण हैं. अन्य स्थलों को देखने के लिए आपको लोनावला शहर के बाहर आना होगा.

भूशी डैम और आस-पास का परिसर

लोनावला से सिटी लेक होते हुए ‘आईएनएस शिवाजी’ नामक स्थान की ओर जाते समय आप यहाँ पहुँच सकते हैं. यह लोनावला का एक मशहूर बाँध है. यही से ‘इंद्रायणी’ नामक प्रसिद्ध नदी का उद्गम होता है. वर्षा ऋतू के आगमन के साथ ही यह बाँध जल से लबालब भर जाता है और अतिरिक्त पानी बाँध से वहाँ बनी सीढ़ियों से बहने लग जाता है. वर्षा ऋतू में यहाँ प्रकृति अपने रंग बिखेरने लगती है. 
वर्षा के जल से सारी वादियाँ भर जाती हैं. हरियाली की मखमली चादर चारों और बिछ जाती है. तब तमाम दूर-दूर से पर्यटक यहाँ वर्षानंद हेतु पहुँचते हैं. चारों ओर बादलों की धुंध और वर्षा–धूप का लुका-छिपी का खेल शुरू हो जाता है. 

भूशी डैम
पर्यटक आनंद से सराबोर हो जाते हैं. इसी डैम की ओर जाते समय पहाड़ियों से बहते झरने एवं सिटी लेक का दृश्य मन को परमानंद की अनुभूति प्रदान कराता है. यहाँ भूशी डैम के ऊपर से बहने वाले जलप्रपात का विहंगम दृश्य भी काफी नयनाभिराम होता है.

टाइगर्स लिप पॉइंट

भूशी डैम के रास्ते से जाते हुए कुछ ही दूरी पर आगे पर्वत के माथे पर यह पॉइंट है. टाइगर्स लिप की ओर जाते समय लोनावला शहर एवं आस-पास का परिदृश्य मन को परमानंद दिलाता है. सुदूर दिखाई देनेवाली नागफणी की चोटी एवं अन्य पहाड़ियाँ, प्रकृति के सुंदर नज़ारे हमारे सम्मुख पेश कराती है. इस पॉइंट पर आने के बाद वर्षा ऋतु में आप स्वर्ग की अनुभूति करने लग जाते हैं. बादल रूपी धुंध की चादर तले सारा क्षेत्र छिप जाता है और तब थोड़ी-सी धुप आने से धुंध छंट जाने लगती है. अचानक सह्याद्री की सुंदर रचना पलकों पर छा जाती है. यह पहाड़ी टाइगर के लिप (होंठ) के समान दिख जाने के कारण इसे यह नाम पड़ा. यहाँ से खाई में एक पर्वत शिवलिंग के आकार का दिखाई देता है, इसलिए इसे ‘शिवलिंगी पॉइंट’ भी कहा जाता है. वर्षा ऋतू में यह परिसर अधिकतर बादलों की धुंध में खोया रहता है. यहाँ से खाई का लुभावना दृश्य बादलों के बीच–बीच से दिखाई देता है, तब पहाड़ियों से झरते झरने और सुंदर दिखाई देने लगते हैं. टाइगर्स लिप्स के आगे सहारा लेक सिटी, अम्बी वैली तथा कोराईगड किले तक पर्यटन का आनंद लूटने पर्यटक उमड़ पड़ते हैं.

नागफणी (ड्यूक नोज)

इस पॉइंट पर पहुँचने के लिए सिटी लेक से पहले ही दाईं ओर मुड़ना पड़ता है. इस सरोवर के किनारे-किनारे से नागफणी तक पहुँचा जा सकता है. इस चोटी के नाग के फण के आकार के समान दिखने के कारण इसे ‘नागफणी’ कहा जाता है. इस पर शिव जी का छोटासा मंदिर भी है. पुणे से मुंबई की ओर द्रुतगति राजमार्ग से जाते समय इस पॉइंट की भव्यता एवं उत्तुंगता को अच्छी तरह से भांपा जा सकता है. सह्याद्री की एक विशाल एवं ऊँची पर्वत चोटी आकाश को चीरती हुई ऊपर जाती हुई नज़र आती है. यह काफी भव्य एवं आकर्षक दिखाई देती है.  

राजमाची पॉइंट

लोनावला शहर के नजदीक मुंबई-पुणे पुराने राजमार्ग से मुंबई की ओर जाते समय यह स्थान रास्ते में नज़र आता है. यहाँ से राजमाची किले का सुंदर दृश्य दिख जाने के कारण इसे ‘राजमाची पॉइंट’ कहा जाता है. सह्याद्री की लंबी गहरी खाई और मुंबई-पुणे स्वर्णिम राजमार्ग का दृश्य एवं उस पर चलते वाहन मनुष्य की प्रकृति पर एक विजय के चमत्कार को बयाँ करते हैं. यहाँ बंदरों का तांता भी हमेशा लगा रहता है. 
राजमाची पॉइंट का विहंगम दृश्य
कार्ला की बौद्ध गुफाएँ एवं एकविरा माता का मंदिर
लोनावला से लगभग 11 किमी तथा पुणे से 59 किमी की दूरी पर पुराने पुणे-मुंबई राजमार्ग से पुणे की ओर जाते समय ‘कार्ला’ नामक गाँव से इन गुफाओं के लिए मुड़ना पड़ता है. असल में यह गुफाएँ वेहेरगाँव की सीमा में स्थित हैं, परंतु ‘कार्ला’ नामक स्थान के कारण  ही यह गुफा-समूह भारतभर में प्रसिद्ध है. ये गुफाएँ भारतीय वास्तु कला का बेजोड़ नमूना है. लगभग 2000 वर्षों पूर्व एक विशाल चट्टान को तराशकर इन गुफाओं का निर्माण कराया गया. इन गुफाओं में परिवर्तन का सिलसिला आगे इसवी सन की 7वीं सदी तक चलता रहा. यहाँ कुल 16 गुफाएँ हैं. 
विशाल चैत्यगृह, वेहेरगाँव (कार्ला के पास)
इन गुफाओं की विशालता एवं भव्यता किसी भी मनुष्य को आकर्षित किए बिना नहीं रहती. यहाँ का चैत्यगृह भारत का सबसे विशाल चैत्य माना जाता है. इनमें अनेक सुंदर शिल्प तथा ब्राह्मी लिपि के लेख उकेरे गए हैं, जो इन गुफाओं के निर्माण संबधित इतिहास को समेटे हुए हैं. 
स्तंभ एवं प्रवेशद्वार, कार्ला की गुफाएँ
दंपति या युगल, कार्ला की गुफा

             
इसी स्थान पर कोंकणवासियों की कुलदेवी ‘एकविरा माता’ का मंदिर भी बना हुआ है, जिस कारण से इस स्थान ने एक धार्मिक तीर्थ-क्षेत्र का रूप धारण कर लिया है. इस स्थान से इंद्रायणी नदी का कछार एवं सह्याद्री पर्वत का मनमोहक रूप दिखाई देता है. यहाँ से आगे लोहगढ़, विसापूर, तुंग, तिकोना, कोराईगड आदि किलों के दर्शन भी होते हैं. हर दिन हजारों की संख्या में भक्तगण एवं पर्यटक भ्रमण के लिए आते हैं.  

भाजा की गुफाएँ
‘मलवली’ नामक रेल स्टेशन पर उतरकर या फिर कार्ला गाँव से सड़क मार्ग से यहाँ पहुँचा जा सकता है. मलवली स्टेशन से लगभग 2 किमी की दूरी पर एक पहाड़ की ढलान पर यह गुफाएँ बनाई गई हैं. इन बौद्ध-गुफाओं का निर्माण ईसा पूर्व 2री शताब्दी का माना जाता है. ये भारत की प्रारंभिक बौद्ध गुफाओं में से एक मानी जाती है. इन गुफाओं की ओर जाते ही रास्ते में सुंदर जलप्रपात के दर्शन होते हैं, जो वर्षा ऋतू में किसी भी पर्यटक को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं. पर्यटक इसके नीचे नहाये बिना अपने आपको रोक नहीं पाते. इस पहाड़ी से आगे लोहगड एवं विसापूर किले के लिए रास्ता बना हुआ है.

लोहगड एवं विसापूर किले

महाराष्ट्र किलों की भूमि है. छत्रपति शिवाजी महाराज का इन किलों पर काफी समय तक वर्चस्व रहा. यहाँ से दिखाई देने वाले सुंदर मनोहर दृश्य हर किसी को आकर्षित कर लेते हैं. भाजा से बने इन किलों पर चढ़ाई के लिए बुलंद हौसलों की जरुरत है. 
लोहगड किला
लोहगडवाडी नामक गाँव तक पर्यटक अपने वाहनों को भी लेके जा सकते हैं. लोहगड किला एक मजबूत किला है. मध्यकालीन युग के बहुत से अवशेष जैसे- मंदिर, मस्जिद, कोठरियाँ, पाषण में कुरेदी पानी की टंकियाँ, शिलालेख, परकोट, बुर्ज, दरवाजें किले पर दिखाई देते हैं. 
लोहगड किले की वास्तु-रचना
इस किले पर ‘विंचू काँटा’ नामक एक स्थान हैं जो बिच्छू के डंक के समान प्रतीत होता है. किले के चारों ओर घने जंगल किले की सुंदरता को और बढ़ाते हैं. वर्षा ऋतू में किले पर पीले फूलों की चादर-सी फ़ैल जाती है, तब किले का विहंगम दृश्य दर्शकों को प्रकृति की जादुई दुनिया का सफ़र करवाता है. 

विंचू काटा, लोहगड

लोहगड किले पर फूलों की चादर
विसापूर किले की चढ़ाई थोड़ी-सी मुश्किल है. इस पर पहुँचने के लिए एक अच्छा गिर्यारोहक का होना अनिवार्य है. किले पर कुछ तोपें, मंदिर, हनुमान जी की प्रतिमा और कुछ दरवाजों के अवशेष दिखाई पड़ते हैं.   
विसापूर किले का सामान्य दृश्य
इन सभी स्थलों के अलावा खंडाला, माथेरान, कोंडाणा की बौद्ध गुफाएँ, ठाकुरवाड़ी की नागनाथ गुफा, वलवन डैम, देहु, पाटन की गुफा, भामचंद्र की गुफाएँ, पवना डैम, तुंग एवं तिकोना किले आदि दर्शनीय स्थलों के लिए भी लोनावला से जाया जा सकता है.

पवना डैम एवं पहाड़ियों का दृश्य


शुक्रवार, १६ ऑगस्ट, २०१९

मंगलवेढ़ा का इतिहास/ Mangalvedha ka Itihas

Vishnu, Mangalwedha, Sculptures.
संभवतः भगवान विष्णु की प्रतिमा

मंगलवेढ़ा नामक एक प्रमुख तीर्थस्थल पंढरपुर से 21 किमी की दूरी पर है. इस स्थान के नाम की उत्त्पति से संबंधित दो विचार प्रवाह जुड़े हुए हैं. पहले विचार प्रवाह के अनुसार यहाँ राज्य करने वाले ‘मंगल’ नामक राजा के कारण यह नाम पड़ा तथा दूसरे के अनुसार गाँव में स्थित ‘मंगलाई’ माता के कारण इसे ‘मंगलवेढ़ा’ नाम प्राप्त हुआ. यहाँ पर मिलनेवाले पुरावशेष 9-11वीं शताब्दी के भी पीछे तक ले जाते हैं. 



चालुक्य, कलचुरी राजवंशों के समय यह एक प्रमुख स्थान था. कुछ समय तक यह प्रदेश देवगिरि के यादवों के अधिपत्य में भी रहा. अंततः लगभग 14वीं शताब्दी में यह बहमनी राज्य का अंग बना रहा. मंगलवेढ़ा में जगह-जगह प्राचीन पुरावशेष बिखरे पड़े हैं. 
इनमें भगवान विष्णु, ब्रह्मा, नागदेवता, जैन प्रतिमाएँ, ऋषि प्रतिमा, विभिन्न मंदिरों के स्तंभ, गढ़ी, मंदिर, बारव आदि शिल्प एवं स्थापत्य रचना प्रमुख हैं.
Mangalwedha, Solapur, Temples, Sculptures.
ब्रह्मा, काशी विश्वेश्वर मंदिर के पास
Jain Tirthankar, Mangalwedha, Solapur.
जैन तीर्थंकर
मंगलवेढ़ा में महाराष्ट्र के महान संत चोखामेला का मंदिर है. वे पंढरपुर के विट्ठल जी के परमभक्त थे तथा संत ज्ञानेश्वर के समकालीन थे. चोखामेला ने भक्ति मार्ग के साथ-साथ समाजोद्धार का भी महान कार्य किया. सन 1338 में एक किलेनुमा भवन के निर्माण कार्य में दीवार के धँस जाने के हादसे में उनका दुखद निधन हुआ. इस हादसे में अन्य लोगों को भी अपने प्राण गँवाने पड़े. यह समाचार सुनकर संत नामदेव जी तत्काल मंगलवेढ़ा आये तथा चोखामेला की अस्थियों को पंढरपुर ले गए, बाद में चोखामेला की समाधि बनवाई गई.
मंगलवेढ़ा में ही 13वीं शताब्दी में संत कवयित्री कान्होपात्रा का जन्म हुआ था. वह पंढरपुर के भगवान विट्ठल जी को पूजती थीं. उन्होंने अनेक अभंगों की रचना की थी. उनके अभंग चरित्र महिपतिकृत ‘भक्त-विजय’ नामक ग्रन्थ में आये हैं. स्थानीय कथानुसार जब समाज विघातक लोगों द्वारा उनसे छल किया जाने लगा था तब वह हमेशा के लिए पंढरपुर आकर विट्ठल जी की भक्ति करने लगीं.
धर्म एवं मानवता के लिए अपना जीवन अर्पण करनेवाले संत दामाजी भी मंगलवेढ़ा के निवासी थे. वे बीदर की सल्तनत में भू-राजस्व अधिकारी थे. वे अपनी जिम्मेदारी को निभाते हुये विट्ठल जी की भक्ति भी किया करते थे. सन 1458-60 में महाराष्ट्र में भयंकर अकाल पड़ा था. भुखमरी से सैकड़ों लोगों की जाने जा रही थीं. परन्तु सरकारी गोदाम अनाज़ों से भरे पड़े थे. भू-राजस्व अधिकारी के नाते उन्होंने सुलतान की आज्ञा के बिना ही गोदाम आम लोगों के लिए खोल दिए. उनकी इस अवज्ञा से क्रोधित होकर बहमनी सुलतान हुमायूँ ने उन्हें कैद करके अपने सामने हाज़िर करने का हुक्म दिया. कहा जाता है कि दामाजी के बीदर पहुँचने के पहले ही विट्ठल भगवान ने एक हरिजन के वेश में बीदर दरबार में आकर बाँटे गए अनाज का मूल्य चुकता किया. दामाजी ने अस्पृश्यता निवारण का कार्य भी किया. हर वर्ष पौष महीने में मंगलवेढ़ा में उनके स्मरणार्थ यात्रा का आयोजन किया जाता है.
Mangalwedha, Barav, Water tank, Solapur.
बारव, काशी विश्वेश्वर मंदिर
Mangalwedha.
बुर्ज के अवशेष, मंगलवेढ़ा
इसी नगर में लगभग 800 वर्ष पुराना 'काशी विश्वेश्वर महादेव’ मंदिर भी है. 1572 इसवीं में इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया था. यहाँ महाशिवरात्रि का उत्सव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है.
Mangalwedha, Solapur, Temple.
काशी-विश्वेश्वर मंदिर का सामान्य दृश्य
यहाँ की ‘चौबुर्जी’ नामक वास्तु प्रसिद्ध है. यहाँ पीर गैबी बाबा की दरगाह भी है, जहाँ हर वर्ष ‘उर्स’ का आयोजन किया जाता है.
Gaibi Pir, Mangalwedha.
गैबी पीर की दरगाह
पंढरपुर, सोलापुर से सरकारी बस-सुविधा उपलब्ध है. नजदीकी रेल-स्टेशन पंढरपुर में है. सोलापुर रेल-स्टेशन भी यात्रियों के लिए सुविधाजनक हैं. (पंढरपुर-26 किमी, सोलापुर-54 किमी, विजयपुरा-87 किमी, कराड- 171 किमी)


शनिवार, १० ऑगस्ट, २०१९

शिखर-शिंगणापुर के शंभू महादेव/ Shikhar-Shinganapur ke Shambhu Mahadev


महाराष्ट्र की महादेव पहाड़ियों के एक विशाल शिखर पर महादेव का प्राचीन मंदिर है. यह धार्मिक स्थल सतारा जिले के 'माण' नामक तहसील में स्थित है. माना जाता है कि चैत अष्टमी के दिन शिव-पार्वती का विवाह इसी स्थान पर संपन्न हुआ था. इस आधार पर ग्रामवासी हरसाल इसी दिन शिव-पार्वती के विवाह का आयोजन करते हैं.

शंभू महादेव के मंदिर का सामान्य दृश्य

शंभू महादेव मंदिर पर अंकित शिल्प
ज्ञात इतिहास से पता चलता है कि यादव राजा ‘सिंघण’ ने इस मंदिर का निर्माण किया था. आज का शिंगणापुर उस समय का ‘सिंघणपुर’ बताया जाता है. यहाँ की पहाड़ी पर स्थित शम्भू महादेव के विशाल मंदिर में पहुँचने के लिए लगभग 180 मी ऊँची चढ़ाई करनी पड़ती है. मार्ग में ‘खडकेश्वर’ और ‘मांगोबा’ मंदिर के दर्शन पाकर शिवाजी महाराज की प्रेरणा से बने महाद्वार तक हम पहुँच जाते हैं. मुख्य मंदिर में प्रवेश करते ही सर्वप्रथम दीपमालाएँ नज़र आती हैं. मंदिर गर्भगृह, अंतराल, सभामंड़प तथा नंदीमंडप से युक्त है. वर्तमान में स्थित यह मंदिर स्थापत्य कला की दृष्टि से लगभग १७-१८वीं सदी में बनाया हुआ प्रतीत होता है. यहाँ शिव-पार्वती के स्वयंभू लिंग हैं. 

शंभू महादेव मंदिर के स्तंभ पर श्री कृष्ण जी का शिल्प
मंदिर तथा स्तंभों पर तरह-तरह के शिल्प बनाये गए हैं. इस पर पशुपति, विष्णु, कृष्ण, गणेश तथा अन्य शिल्प भी दिखाई देते हैं. जंगली सुअरों तथा अन्य शिकार के दृश्य बड़ी ही कलात्मकता से बनाए गए हैं. मंदिर के परिसर में अन्य देवी-देवताओं के मंदिर भी हैं.

हिरण के शिकार का दृश्य
मुख्य मंदिर के पास ‘बलीराजा’ का मंदिर है. यह मंदिर मुख्य मंदिर की छोटी प्रतिकृति ही लगता है. स्थापत्य एवं कला कि दृष्टि से यह मंदिर १२-१३वीं सदी का प्रतीत होता है. मंदिर अभी भी सुअवस्था में है. यह भूमिज शैली में निर्मित मंदिर वास्तुकला का एक सुंदर नमूना है.
बली मंदिर, शिखर-शिंगनापुर
शिवरात्रि के अवसर पर यहाँ भव्य मेले का आयोजन होता है. महाराष्ट्र के कोने-कोने से हजारों भक्तगण पूरी श्रद्धा एवं ‘हर-हर महादेव’ का जयघोष करते हुए अपनी कावड़ियों के साथ आते हैं. 
शिंगणापुर के लिए पुणे, सतारा, फलटण तथा म्हसवड से बसों की सुविधा है. प्राचीन काल से ही यह एक सुप्रसिद्ध धार्मिक स्थल रहा है. आस-पास का प्राकृतिक दृश्य देखने लायक है. 

(फलटण- 36 किमी, बारामती- 50 किमी, पंढरपुर- 83 किमी, सतारा- 85 किमी, दौंड- 94 किमी, जेजुरी- 99 किमी, कोल्हापुर- 160 किमी, पुणे- 151 किमी, तुलजापुर- 197 किमी)


सोमवार, १५ जुलै, २०१९

शक्तिपीठ तुलजापुर का पर्यटन/ Shaktipith Tuljapur ka paryatan



महाराष्ट्र की कुलदेवी के रूप में माता 'तुलजा भवानी' को पूजा जाता है. महाराष्ट्र के साढ़े तीन शक्तिपीठों में तुलजापुर को प्रमुख स्थान प्राप्त है. यह मराठवाड़ा के धाराशिव (अब उस्मानाबाद) जिले में स्थित है.
'स्कन्द' एवं 'मार्कंडेय' पुराणों में देवी के अवतार संबंधी संदर्भ प्राप्त होते हैं. महिषासुर नामक क्रूर दैत्य का संहार कर माता ने प्रजा को संकटमुक्त किया, इसलिए इन्हें 'महिषासुर–मर्दिनी' भी कहा जाता है. यह वीरों को शक्ति एवं स्फूर्ति प्रदान करानेवाली, सकंटमोचनी, भक्तों की मनोकामनाएँ पूर्ण करनेवाली देवी है. माना जाता है कि मराठा स्वराज्य संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज को सुप्रसिद्ध भवानी तलवार यहीं से प्राप्त हुई थी, जिससे उन्होंने मुग़ल एवं अन्य आक्रमणकारियों से प्रजा की रक्षा की. यहाँ के मराठा पुजारी भक्तगणों की सेवा में हमेशा तत्पर रहते हैं. इनसे प्राप्त दस्तावेजों में शिवाजी महाराज के अलावा छत्रपति शाहू, महादजी सिंधिया, धनाजी जाधव, हम्बीरराव मोहिते, बालाजी बाजीराव आदि महान विभूतियों के यहाँ आने के संदर्भ प्राप्त होते हैं.
छत्रपति शिवाजी महाराज महाद्वार, तुलजाभवानी मंदिर


भवानी मंदिर, नगर के पश्चिमी भाग में पहाड़ी-ढलान पर प्रकृति की गोद में बसा हुआ है. मंदिर परिसर विस्तृत एवं अद्भुत है. मंदिर परिसर में प्रवेश 'शहाजी' या 'जीजामाता' महाद्वारों से किया जा सकता है. इनसे मंदिर की ओर नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनाई गई हैं. यहाँ से उतरते ही बाईं ओर 'कल्लोल तीर्थ' तथा दाईं ओर 'गोमुख तीर्थ' हैं. इसमें स्नान करने की परंपरा प्राचीन समय से है. यहाँ से आगे बढ़ते ही देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं, जिनके दर्शन लेकर हम 'सरदार निम्बालकर' दरवाजे से मुख्य मंदिर प्रांगण में प्रवेश करते हैं. इसी दरवाजे के दोनों ओर गणपति एवं मातंगी देवी के मंदिर हैं. यहाँ से आगे बढ़ते ही होमकुंड एवं मंदिर की विशाल वास्तु का आकर्षक रूप दिख जाता है.

तुलजाभवानी मंदिर

होमकुंड में विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान एवं होम-हवन किये जाते हैं. इसकी वास्तु पर आकर्षक शिखर है, जिस पर ऋषि-मुनियों एवं पशु-पक्षियों की सुंदर मूर्तियाँ बनाई गईं हैं. होमकुंड से आगे ही पीपल का विशाल वृक्ष मंदिर की शोभा बढ़ाता है. मंदिर का शिखर अर्वाचिन है परंतु सभामंड़प में स्थित स्तंभों एवं अन्य वास्तु रचना को देखकर इसकी सुंदरता एवं भव्यता का एहसास किया जा सकता है. सभागृह से ही गर्भगृह में स्थित माता के उज्ज्वल मुखमंडल के दर्शन पाकर अपार शांति एवं पवित्रता की अनुभूति से मनुष्य माता के सामने नतमस्तक हो जाता है. माता की मूर्ति अष्टभुजाधारी है. इस मूर्ति के दोनों ओर मार्कंडेय ऋषि एवं सिंह की प्रतिकृतियाँ हैं, साथ ही महिषासुर वध का दृश्य भी उकेरा गया है. गर्भगृह के सामने रखी गई सिंह की मूर्ति भक्तों का ध्यान अपनी ओर खींच लेती है. यह माता का वाहन है.
गर्भगृह के बाईं ओर माता का शयनगृह है. यहाँ से वापस सभागृह में आते ही 'भवानी शंकर' के दर्शन होते हैं. मंदिर के बाहर प्रदक्षिणा मार्ग में खंडोबा, नरसिंह, दत्तगुरु आदि देवी-देवताओं के मंदिर दृष्टिगोचर होते हैं. इसी मार्ग में मंदिर के पार्श्वभाग में 'शिवाजी महाद्वार' है. यहाँ से 'अराधवाडी' में स्थित भारतीबुवा मठ के दूर से दर्शन होते है. इस मठ के पीछे दूर एक टीले पर खंडोबा का मंदिर भी है, जो दूर से सैलानियों एवं भक्तों का ध्यान आकर्षित करता है.
खंडोबा मंदिर, तुलजापुर

तुलजापुर में हरदिन भक्तों का मेला-सा लगा रहता है. नवरात्रि में विशाल जनसागर का रूप यहाँ देखने मिल जाता है. देश के कोने-कोने से लाखों भक्तगण यहाँ आते रहते हैं.
भवानी मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित पहाड़ी ढलान पर 'घाटशिल' नामक स्थान है. यह स्थान मार्कन्डेय ऋषि तथा प्रभु राम से संबंधित माना जाता है. भक्तगणों की श्रद्धा है कि जब सीता की खोज के लिए राम निकले थे तो उन्हें इसी 'दक्षिणापथ' प्रांत से गुज़रना पड़ा था. यह वही स्थान है जहाँ पार्वती ने सीता का रूप धारण कर राम के एक पत्नित्व की परीक्षा ली थी, जिसमें राम सफ़ल हुए. पार्वती ने प्रसन्न होकर उन्हें दक्षिण का मार्ग दिखाया तथा आशीर्वाद देकर विदा किया.

घाटशिल, तुलजापुर
यहाँ की पहाड़ी से दक्षिण दिशा का दूर तक का क्षेत्र दिखाई देता है. यहाँ से आगेवाली पहाड़ी पर 'पापनाश' तीर्थकुंड हैं जो महान तपस्वी गौतम ऋषि से संबंधित माना जाता है. तुलजापुर परिवेश में रामवरदायिनी, बारालिंग, मातंगी देवी, कालभैरव-टोलभैरव, राम मंदिर, मुद्गलेश्वर आदि मंदिर हैं. 

हनुमान जी, मारुती मंदिर, तुलजापुर
तुलजा भवानी मंदिर के परिवेश में लगभग 13-14 वीं सदी के पुरावशेष भी दिखाई देते हैं.

हाथी शृंखला (लगभग 13 वीं सदी), तुलजापुर
तुलजापुर में जगह-जगह पर मध्यकाल में बनवाई गईं बावड़ियाँ (कुंड) भी हैं. इनमें मंकावती तीर्थ सबसे विशाल है. तुलजापुर में मध्यकाल के 'गधेगल' (Ass-curse stones) एवं कुछ शिलालेख भी हैं.
गधेगल, मारुती मंदिर (कल्याण चावडी के पास), तुलजापुर
तुलजापुर में स्थित मठ एवं मंदिर (तुलजापुर शहर)
सिद्ध गरीबनाथ मठ
माना जाता है कि इस मठ की स्थापना सिद्ध गरीबनाथ ने की थी. वे तुलजा भवानी माता के निस्सीम भक्त थे. इसी मठ में उन्होंने 'हिंगलाज' माता के मंदिर की स्थापना भी की. यहाँ नियमित धूनी प्रज्वलित की जाती है. दशहरे के समय होम-हवन भी किया जाता है. हिंगलाज माता एवं समाधि स्थानों की पूजा पारंपरिक वाद्यों द्वारा नियमित रूप से की जाती है. महंत मावजीनाथ, महंत प्रकाशनाथ, महंत तुकनाथ इस प्रकार मठ की पारंपरिक शिष्य परंपरा है. वर्तमान महंत मावजीनाथ मठाधिपति है. भ्रमण करते हुए आनेवाले साधु-सन्यासियों की व्यवस्था इस मठ में की जाती है. इस मठ में गरीबनाथ जी की समाधि है.

हिंगलाज माता, गरीबनाथ मठ, तुलजापुर
महंत भारती बुवा का मठ
छत्रपति शिवाजी महाद्वार से आराधवाडी के पीछे लगभग डेढ़ किमी की दूरी पर भारती बुवा का मठ है. इस मठ की स्थापना 'रणछोड़ भारती' नामक गोसावी ने 18वीं सदी में की थी. इस मठ में माता के पारंपरिक खेल खेलने की जगह भी है. मठ परिसर में रणछोड़ भारती, गोविन्द भारती, गणेश भारती, गजेन्द्र भारती आदि सज्जनों की समाधियाँ हैं. रणछोड़ भारती, दशनामी गोसावी थे. छत्रपति शाहू ने मठ एवं अन्य विधियों के लिए कुछ गाँव दान में दिए थे.

महंत वाकोजी बुवा का मठ
मंदिर के दक्षिण में स्थित हिस्से में तथा छत्रपति शिवाजी महाद्वार से आगे बाईं ओर यह मठ स्थित है. सभी धार्मिक विधियाँ जैसे– काकड़ आरती, रक्षापूजा, अभिषकों के बाद की धूप आरती एवं अन्य पारंपरिक अधिकार भी इन्हीं के पास है. महंत तुकोजी बुवा वर्तमान में महंत है.

अरण्यगोवर्धन मठ
यह मठ शुक्रवार पेठ में है. इसकी स्थापना महंत तुको जनार्दन जी ने की थीं. यह मठ दशनामी संन्यासी मत से संबंधित है. फिलहाल भावसार क्षत्रिय समाज इसकी व्यवस्था देखता है. इस मठ में प्राचीन मंदिर भी है, जिसमें श्री रामवरदायिनी माता की मूर्ति है. माता के हाथों में विभिन्न शस्त्रास्त्र हैं. माना जाता है कि सीता की ख़ोज पर निकले प्रभु श्रीराम जी यहाँ कुछ देर ठहरे थे. यहाँ से पास ही 'रामदरा' नामक तालाब भी है. 


हमरोजी बुवा मठ
शिवाजी महाराज महाद्वार से बाईं ओर यह मठ स्थित है. यहाँ के मठाधिपति के पास देवी के जमादार खाने की व्यवस्था थी. इन मठों के अलावा 'नारायण गिरी मठ' भी तुलजापुर में स्थित है.

धाकटे तुलजापुर की भवानी माता 
सन 1960 में तुलजापुर शहर से पास ही श्री. रामचंद्र माली जी के खेत में जुताई के समय माता की मूर्ति प्राप्त हुई. गाँववालों ने इस मूर्ति की स्थापना गाँव में ही की. वर्तमान में यह परिसर तुलजापुर का ही एक हिस्सा बन चुका है.

तुलजापुर सड़क मार्ग से समूचे देश से जुड़ा हुआ है. इसी शहर से राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक-211 जाता है. यहाँ आने के लिए नजदीकी रेल-स्टेशन सोलापुर एवं उस्मानाबाद हैं, जहाँ से सरकारी एवं निजी बसों की समुचित व्यवस्था हैं. भक्तगणों के निवास के लिए धर्मशाला तथा लॉज की व्यवस्था भी उपलब्ध है. यहाँ से 'चिवरी' की माता का मंदिर-27 किमी, रामलिंग-40 किमी, खंडोबा मंदिर, अणदूर-28 किमी तथा 'आपसिंगा' नामक प्राकृतिक-स्थल केवल 7 किमी की दूरी पर स्थित है, जो सातवाहन-काल से ही मानव की गतिविधियों का केंद्र रहा है. यहाँ एक गढ़ी एवं भव्य प्रवेशद्वार भी है, जो दर्शनीय है.
भव्य प्रवेशद्वार (वेस), आपसिंगा
तुलजापुर से अन्य प्रसिद्ध स्थानों का अंतर इस प्रकार है-
(धाराशिव-22 किमी, नलदुर्ग-33 किमी, तेर-43 किमी, सोलापुर-48 किमी, बार्शी-51 किमी, अक्कलकोट-65 किमी, लातुर-76 किमी, पंढरपुर-101 किमी, अम्बाजोगाई-106 किमी, बसवकल्याण-112 किमी, कलबुर्गी-145 किमी, गाणगापुर-145 किमी, विजयपुरा-145 किमी, नांदेड-209 किमी, औरंगाबाद-264 किमी, पुणे-275 किमी, शिरडी-293 किमी, हैदराबाद- 298 किमी, मुंबई-438 किमी)

मंगळवार, ९ जुलै, २०१९

तेर की प्राचीन विरासत/ Ter ki Prachin Virasat


आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व वर्तमान में महाराष्ट्र के उस्मानाबाद (धाराशिव) जिले में स्थित 'तेर' विश्वस्तर पर प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र के रूप में जाना जाता था. 'पेरिप्लस ऑफ़ द एरिथ्रीयन सी' नामक प्राचीन रोमन ग्रंथ में इसकी समृद्धि का उल्लेख मिलता है. सातवाहन कालीन प्रतिष्ठाण (पैठण), भोगवर्धन (भोकरधन), जुन्नर, भडोच आदि प्रसिद्ध स्थलों में 'तगर' अथवा 'तेर' प्रसिद्ध रहा है. पुराणों में तेर को 'सत्यपुरी' कहा गया है. यहाँ पर हुए पुरातात्त्विक उत्खननों में रोमन काल से संबंधित विभिन्न प्रमाण पुरावशेष के रूप में पाए गए हैं. इन पुरावशेषों से यह सिद्ध हो चुका है कि प्राचीन काल में तेर का संबंध रोमन साम्राज्य (वर्तमान में यूरोप महाद्वीप का भाग) से था.
पुरातात्त्विक दृष्टि से यह स्थान बहुत ही समृद्ध है. यहाँ जगह-जगह प्राचीन पुरावशेष बिखरे पड़े हैं. इस कारण संपूर्ण तेर क्षेत्र 'राष्ट्रीय संपदा' बन गया है. 
महाराष्ट्र के प्राचीन मंदिरों में यहाँ के मंदिरों का स्थान महत्त्वपूर्ण है. इतना सब कुछ होने के बावजूद भी यह स्थान सामान्य जनता में विट्ठल भक्त संत 'गोरा (गोरोबा काका) कुंभार' के गाँव के रूप में ही अधिक पहचाना जाता है. संत गोरोबाकाका कुंभार, महान संत ज्ञानेश्वर के समकालीन थे. संत मंडली में वे ज्येष्ठ माने जाते हैं. उनके अभंग 'सर्वसंग्रहगाथा' नामक ग्रंथ में मिलते हैं. माना जाता है कि 13 वीं शताब्दी में यह स्थान वैष्णवों का एक महत्वपूर्ण गढ़ बन चुका था. विभिन्न संतों ने इस स्थान की महिमा को नवाज़ा है. धार्मिक आडंबर एवं अंधश्रद्धाओं को उन्होंने अपने पैरों तले रौंदा. वे महाराष्ट्र के अन्य संतों के मार्गदर्शक भी थे. उनके घर-आँगन की नींव आज भी यहाँ दिखाई जाती है. इनके घर को 'राज्य संरक्षित स्मारक' का दर्जा प्राप्त हुआ है. यहाँ से होकर बहनेवाली 'तेरणा' नदी तट पर प्राचीन कालेश्वर मंदिर के पास ही संत गोरा कुंभार का समाधि मंदिर स्थित है. चैत एकादशी से अमावस्या तक यहाँ विशाल यात्रा का आयोजन होता है. इस समय महाराष्ट्र के कोने-कोने से श्रद्धालु आते हैं. 
तेर में स्थित 'त्रिविक्रम मंदिर' वास्तुकला की दृष्टि से भारत के दुर्लभ मंदिरों में से एक है. यह महाराष्ट्र के सबसे प्राचीन मंदिरों में से भी एक है. सातवाहन काल में फली-फूली वास्तुकला का प्रभाव इस मंदिर पर साफ़-साफ़ दिखाई देता है. समूचा मंदिर ईंटों से बनवाया गया है.

त्रिविक्रम मंदिर, तेर 
गर्भगृह में विष्णु भगवान की विशाल एवं सुन्दर मूर्ति है. यह मूर्ति विष्णु के वामन अवतार से संबंधित है, जिसमें वे अपने एक पैर से आकाश को समेट रहे हैं. पास में राजा बलि एवं उनकी पत्नी तथा शुक्राचार्य को भी दिखाया गया है. विष्णु का मुकुट बहुत ही सुंदर है. माना जाता है कि इस मंदिर में प्रसिद्ध संत नामदेव ने भजन-कीर्तन किया था. 

सभामंड़प, त्रिविक्रम मंदिर, तेर
कालेश्वर मंदिर, तेर
यहाँ पर स्थित 'उत्तरेश्वर मंदिर' अपनी ख़ास वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है. इस मंदिर के काठ-दरवाजे पर अप्रतिम कारीगरी की गई है. यह अपने आप में एक अनूठा उदाहरण है. 

उत्तरेश्वर मंदिर, तेर
यह विशिष्ठ प्रकार का दरवाजा तेर के 'लामतुरे संग्रहालय' में सुरक्षित रखा गया है. इस संग्रहालय में प्राचीन काल के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, व्यापारिक जीवन को दर्शानेवाली बहुत सारी वस्तुओं को भी सुरक्षित रखा गया है. यह संग्रहालय दर्शनीय है. सातवाहन एवं रोमन सिक्के, मूर्तियाँ, मणि, टेराकोटा से बनी मूर्तियाँ एवं वस्तुएँ, मर्तबान, स्तुपावशेष आदि पुरावशेष यहाँ देखने मिलते हैं. यहाँ ईंटों से निर्मित लगभग 2000 वर्ष पुराना बौद्ध स्तूप का ढाँचा भी प्राप्त हुआ है. तेर में एक प्राचीन जैन मंदिर भी है.

जैन प्रतिमा, जैन मंदिर, तेर
उपर्युक्त सभी मंदिर, सफ़ेद मिट्टी के टीले, स्तूप आदि रचनाओं को राज्य संरक्षित स्मारकों का दर्जा प्राप्त हुआ है. इस गाँव में पानी पर तैरनेवाली ईंटें भी मिलती हैं. 
प्राचीन पुरातात्विक टीले, तेर
उस्मानाबाद (धाराशिव)

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