
व्यक्ति के संपूर्ण जीवन पर उसकी बाल्यावस्था से लेकर किशोरावस्था तक का प्रभाव गहराई से पड़ता है. उसकी धारणाएँ, मान्यताएँ, रूचि, दृष्टिकोण काफी हद तक उसके बचपन के अनुभवों की ही देन होती है.
मैं, आज अपने आपको देखता हूँ तो इन बातों को महसूस करके लगता है कि आज जो भी मेरी रूचि, आदतें, धारणाएँ एवं मान्यताएँ हैं, उन पर मेरे बचपन का असर ही अत्यधिक है. मेरे दृष्टिकोण एवं जीवन जीने के तरीके की बुनियाद मुझे अपने बचपन के दिनों में दिखाई देती है.
मुझे याद है, बचपन में किस प्रकार से मैं अपने मोहल्ले के दोस्तों के साथ घुल-मिल गया था. वह लुका-छिपी का खेल तथा चोर-पुलिस के खेल में गाँव की तमाम गलियों को ढूँढते हुए अपने आप को बचाना या फिर पुलिस बनकर अपने चोर बने साथी की तलाश में उसे ढूँढने दूर-दूर तक जाना, शायद इसी प्रकार के खेलों से निरीक्षण एवं सूक्ष्म जाँच की दृष्टि आई होगी, जो आज समाज में चौकन्ना रहने के लिए प्रेरित करती है.
कुछ दोस्तों के साथ नदियों, पहाड़ों, खेत-खलिहानों तथा खुले विस्तीर्ण मैदानों में घूमना आज पर्यावरण के प्रति विशेष दृष्टिकोण बनाने में सहायता दे रहा है. प्रकृति के प्रति प्रेम एवं रूचि अपने आप बढ़ चुकी है. गाँव के चारों ओर फैली पहाड़ियों के उस पार की दुनिया को झाँककर देखने की इच्छा इतनी तीव्र होती थी कि जिससे नए प्रदेशों को जानने के कौतूहल का विकास होता गया. शायद भूगोल के प्रति रूचि इसी से बढ़ी. आज भौगोलिक विविधता को जानकर विभिन्न प्रदेशों की भिन्नता को मेरा मन स्वीकार कर पाता है. बचपन में अपने घर-आँगन से मेरा मन जैसे-जैसे बढ़ता गया वैसे-वैसे बड़ी लगने वाली दुनिया छोटी-से-छोटी होती गई. कितना अद्भुत है यह परिवर्तन!
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बालाघाट पहाड़ियाँ, अपसिंगा |
मामा के गाँव में, नानी का आँचल थामे उनकी गोद में बैठना हो या नाना के सरौते से काटी हुई सुपारी के टुकड़े को खाने की लालसा मन में उत्पन्न होना हो और उनका वह प्यार तथा अपनापन, आज उनके प्रति एवं उनके जैसे अन्य बड़ों के प्रति श्रद्धा को बढ़ाए हुए है.
आज भी याद है, खेतों की मेड़ों पर बनी पगडंडियों से अकेले डरते-डरते, मवेशियों को खेतों में चराते नाना को ढूंढने तक का वह सफ़र! छोटी-सी उम्र में वह गन्नों के खेतों की आड़ बड़ी डरावनी लगती थी. ..फिर उसके बाद तुअर की खेती की घनी आबादी में गुम हुई पगडण्डी से गुजरना मुश्किल बन जाता था, सोचता हूँ, आज इन्हीं घटनाओं ने प्राकृतिक सुषमा को समझने में मेरी कितनी मदद की है!
पहाड़ी फलों को तोड़ने के लिए हम बच्चे मैदानों एवं घनी झाड़ियों को रौंदते हुए निकल पड़ते थे. इसी बीच रास्ते में दिखाई देने वाले विभिन्न कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों एवं वनस्पतियों का साथ आज जीवन की आस बन बैठा है. इन सबके प्रति सद्भावना का प्रतीक बन चुका है.
गाँव की वह चहल-पहल वाली शाम तथा गोधुली! दिन भर परिश्रम करने के बाद खेतों से लौटते हुए किसान-मजदूर, जिनके हाथों में दिखाई देते खेत-खलिहानों से प्राप्त मोरों के पंख या किसान के बेटे के हाथों में खरगोश के किसी बच्चे को देखते हुए मेरा उनके घरों तक जा पहुँचना या खेतों से वापस अपने घर की ओर लौटते अपने परिजनों की राह एकटक होकर देखना, ये सब कुछ-न-कुछ सिखाने वाला ही तो था. वह नन्हा-सा मन न जाने क्या-क्या सीख रहा था, उसे पता नहीं, पर कहीं असर जरूर हो रहा था.
रजवाड़ा, अपसिंगा |
गाँव के इर्द-गिर्द खंडहर पड़े मंदिर तथा रजवाड़ों के गढ़ी के बुर्ज इतिहास के पन्नों को खोलने में सहायक बने. उन्हीं दिनों पहली बार गाँव में प्रविष्ट हुए नए-नए दूरदर्शन का प्रसारण, रामायण और महाभारत के कार्यक्रमों तथा कक्षा दूसरी में पढ़ी छोटी-छोटी कहानियों ने प्राचीन महापुरुषों तथा अच्छाई-बुराई के बारे में सबक भी सिखाया. आज भी राम का नाम लेते ही याद आता है नानी की गोद में बैठकर रात के टिमटिमाते दीपकों के सामने मंदिर के पुजारी द्वारा रामायण के पाठ सुनने का वह दृश्य! शायद पुजारी के वे बोल मेरे कुछ अधिक समझ नहीं आते थे. लेकिन नानी की रूचि और संयम मेरी रूचि और संयम का कारण बना. इन सबके प्रति जो आकर्षण बना रहा, वह आज भी बरकरार है.
छोटी कक्षाओं में नयी-नयी किताबों की वह खुशबू एवं स्लेटों के विभिन्न प्रकारों ने सहज ही पाठशाला की ओर आकृष्ट किया. धोती और टोपी पहने गुरुजनों की छवि आज भी आँखों के सामने तैरती रहती है. उनके प्रति जो आदर था आज भी सामान्य मानव से उन्हें अलग बना देता है.
यादों की पोटली में घर के पास खड़ा वह इमली का विशाल पेड़ भुलाने से भी नहीं भूलता, जिस पर कभी तोते, मोर, गिलहरियाँ तथा बंदरों का तांता लगा रहता था. गर्मियों के दिनों में गली के हर एक छोटे-बड़े सभी का वह अड्डा बन जाया करता था. छोटे-छोटे एवं बड़े बच्चे इसकी घनी छाया में कंचे खेलने का आनंद उठा लेते थे. सचमुच! बचपन के वे दिन कितने आनंददायी थे...
आज, जीवन के वे सभी रुख बदल गए हैं. गाँव की वह गलियाँ बहुत ही छोटी हो गई हैं, लोगों ने अपने घरों के दरवाजे बंद कर रखे हैं. बचपन में हमें समझाने वाले बड़े-बूढ़े दुनिया से विदा ले चुके हैं, इमली का पेड़ कट चुका है और जिस रास्ते पर वह खड़ा था, वह रास्ता गर्मी में झुलस जाता-सा प्रतीत होता है. बच्चे अपने घरों में टेलीविजन के सामने व्यस्त हैं. ट्यूशन्स के बोझ से बोझिल हैं. दूरदर्शन पर लगे क्रिकेट मैचों के दौर को छोड़कर बाकी दिनों मैदान खाली हैं.
अब हर कोई अपने-आप में मस्त होकर जीता है. हर चीज खरीदनी पड़ती है. दूसरों के खेतों में जाने की मनाही है. खेतों-खलिहानों की जिंदगी छोड़कर बच्चे अब अपने घरों में कैद हैं. गाँव के लोग हर दिन शहर की ओर भागते रहते हैं, कहा जाने लगा है कि किसी के पास 'टाइम' नहीं है. बचे-खुचे बड़े-बूढ़े अपने गाँव में ही अजनबी लगते हैं.
धन्यवाद प्रभु! हमारा बचपन इससे अलग था. आधुनिकता की चकाचौंध ने मनुष्य को प्रकृति से बहुत दूर कर दिया है....
(मूलरूप से २०१० में मेरे द्वारा लिखित)