शनिवार, ११ जुलै, २०२०

तिर्थ बुद्रुक : सातवाहनकालीन बौद्ध केंद्र

संभवतः गौतम बुद्ध के जीवन से संबंधित घटना (सफ़ेद चूना पत्थर में  बना शिल्प)

आज से लगभग १८०० साल पूर्व वर्तमान महाराष्ट्र सहित दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्से पर सातवाहनों का अधिकार था. इनका व्यापार यूरोप के रोमन साम्राज्य के साथ भी हुआ करता था. रोमन साम्राज्य से विभिन्न प्रकार का सामान भारतीय प्रायद्विप के पश्चिमी समुद्री तट पर बने बंदरगाहों तक जहाजों के माध्यम से आया करता था. इन बंदरगाहों से भारत के अंदरूनी प्रदेशों से व्यापारी-सामान रोमन साम्राज्य के लिए निर्यात किया जाता था. हमारे व्यापारी भी इस वैश्विक व्यापार में निपुण थे. मसाले, मणि, सूती कपड़ा तथा अन्य जीवनावश्यक वस्तुओं का लेन-देन व्यापार के माध्यम से हुआ करता था. यह व्यापार सातवाहनकाल में अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुका था. इसी कारण से भड़ोच, शुर्पारक (नाला सोपारा), कल्याण, चौल, ब्रह्मपुरी, भोकरधन, अरिकामेडू आदि व्यापारिक केन्द्रों एवं शहरों का विकास दिन-दूनी रात चौगुनी गति से हो रहा था.

तिर्थ बुद्रुक के निवासी

जीवन के हर अंग जैसे समाज, संस्कृति, धर्म, व्यापार, शिल्पकला एवं स्थापत्य में भी तेजी से विकास हो रहा था. इस समय बौद्ध धर्म का प्रचलन इस प्रदेश में अधिक था. बौद्धों से संबंधित स्तूप, विहार, मठ आदि वास्तुओं का निर्माण द्रुतगति से हो रहा था. भारतीय महाद्वीप में अनेक व्यापारिक मार्गों का निर्माण हो चुका था. या पहले से प्रचलन में रह चुके मार्गों का महत्त्व अब बढ़ चुका था. इनमें से एक मार्ग महाराष्ट्र के मराठवाड़ा (मध्य महाराष्ट्र) क्षेत्र से होकर गुजरता था, जिसे उस समय ‘दक्षिणापथ’ के नाम से भी जाना जाता था. मराठवाड़ा के पैठण और तगर (तेर) नामक समृद्ध केन्द्रों का नाम रोमन साम्राज्य तक पहुँच चुका था.

तेर से प्राप्त मृणमूर्तियाँ (टेराकोटा), तेर (तेर संग्रहालय से साभार)

तेर में सातवाहनों एवं रोमन सम्राज्य से संबंधित अवशेष पाए गए हैं. इनमें सिक्के, मर्तबान, हस्तिदंत से बनी स्त्रीमूर्ति, विभिन्न प्रकार के रोमन दीप आदि वस्तुएँ सम्मिलित थीं. तेर से प्राप्त हस्तिदंत से बनी मूर्ति इटली के पॉंपेई से प्राप्त मूर्ति से मिलती-जुलती है. अब तक तेर के बाद अगले पड़ाव के रूप में कर्नाटक के कलबुर्गी जिले में स्थित ‘सन्नती-कनगनहल्ली’ की चर्चा ही विद्वानों में थीं. लेकिन इन दोनों के बीच भी कुछ केन्द्रों का होना तय था. इसी दिशा में मैंने इस प्रदेश के प्राचीन पुरावशेषों से संबंधित ग्रंथों को पढ़ना एवं इस संबंधित स्थानों को भेंट देने का सिलसिला शुरू कर दिया. इसी प्रक्रिया का परिणाम था- तीर्थ बुद्रुक में नए सिरे से प्राप्त हुए बौद्ध धर्म से संबंधित शिल्प एवं स्तूप के संभावित अवशेषों की महत्त्वपूर्ण खोज.

भिमाशंकर टीला (सातवाहनकालीन स्तूप? के अवशेष), तिर्थ बुद्रुक

तीर्थ बुद्रुक नामक छोटासा गाँव महाराष्ट्र के उस्मानाबाद (प्राचीन धाराशिव) जिले के तुलजापुर तहसील से मात्र ९ किमी की दुरी पर बालाघाट पहाड़ियों की एक पहाड़ी पर स्थित है. 

तिर्थ बुद्रुक गाँव का परिदृश्य

सन २००१ में किसी साधू की कुटिया के लिए यहाँ पर स्थित एक टीले की खुदाई का काम चल रहा था. ग्रामीणों को खुदाई से बड़ी आकर की कुछ ईंटें बरामद हुई. यह काम तत्काल रोका गया. यह खबर हवा की तरह प्रदेश में फ़ैल गई. महाराष्ट्र के पुरातत्त्व विभाग के संचालक ने खबर सुनते ही उक्त स्थान की छान-बीन की. ये ईंटों से निर्मित एक गोलाकृति स्तूप के अवशेष थे (संभवतः यह एक अन्य मनौती स्तूप रहा होगा). उन्होंने बाद में इस संबंधी एक संक्षिप्त टिपण्णी विभाग की पत्रिका में भी छपवाई. ऐसा करते समय उन्होंने वहाँ पर पड़े अन्य महत्त्वपूर्ण पुरावशेषों एवं इस स्थान के प्राचीन महत्त्व की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया. इसके बाद इस स्थान के बारे में कहीं कुछ ख़ास लिखने या सुनने में नहीं मिला.

कालभैरवनाथ मंदिर एवं आस-पास का सामान्य दृश्य, तिर्थ बुद्रुक

सन २००८-०९ में मेरे अपने गाँव अपसिंगा में सातवाहनकालीन अवशेष प्राप्त हुए, जो तिर्थ बुद्रुक से महज १६ किमी की दुरी पर स्थित है. यहाँ एक प्राचीन ढाँचे की रचना मिली, जो संभवतः किसी स्तूप की भी हो सकती है. तत्पश्चात २०१३ में इन अवशेषों पर एक शोधलेख भी प्रकाशित किया गया. 

अपसिंगा (सातवाहनकालीन  पुरास्थल) से प्राप्त ईंटों की संरचना

२०१३ में मैंने तिर्थ बुद्रुक के लगभग १४वीं सदी में निर्मित कालभैरवनाथ मंदिर को भेंट दी. इस मंदिर के प्रांगण में रखे कुछ शिल्प दिखाई पड़े. 

डेक्कन कॉलेज, पुणे में मंदिर एवं स्थापत्य की पढ़ाई का अनुभव यहाँ काम आया. इसी दौरान मैं डेक्कन कॉलेज से पी.एचडी भी कर रहा था. सर्वेक्षण का कार्य सर्वत्र शुरू था. मंदिर के सामने रखे सफ़ेद चूना पत्थर (लाइमस्टोन) में बने शिल्प मुझे कुछ अलग लगे. मैंने आस-पास के क्षेत्र की अधिक छान-बीन की. इसमें मुझे स्तूप के लिए सफ़ेद चूना पत्थर में बने अलंकृत रचनाओं के अवशेष दिखाई पड़े. 

स्तूप के अवशेष, तिर्थ बुद्रुक

यहाँ पर लगभग १३वीं सदी में बने भिमाशंकर टीले पर भी सातवाहनकालीन ईंटे तथा ईंटों से बनी किसी स्थापत्य-रचना के अवशेष दिखाई दिए. यह मंदिर तथा प्राचीन टीला खंडहर में बदल चुके थे. 

प्राचीन टीले पर बने भिमाशंकर मंदिर के अवशेष, तिर्थ बुद्रुक


भिमाशंकर मंदिर के अवशेष, तिर्थ बुद्रुक

इसके बाद कईं बार मैंने इस क्षेत्र का दौरा एवं सर्वेक्षण किया. इसकी विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के बाद मुझे ज्ञात हुआ कि यहाँ पर पड़े शिल्प एवं अन्य अवशेष अमरावती और सन्नती-कनगनहल्ली के स्तूपों से मिलते-जुलते हैं. यहाँ से चूना पत्थर में बने शिल्पों के साथ सातवाहनकालीन मृद्भांड के ठिकरें, घर की छत पर लगाए जाने वाले खपरैल (tiles) तथा पद्म पदक (medallions) भी प्राप्त हुए हैं. 

स्तूप से संबंधित पद्म पदक (Medallion), तिर्थ बुद्रुक

मध्ययुगीन अवशेषों में भिमाशंकर एवं कालभैरवनाथ मंदिर के अवशेष, शिवलिंग, भैरव, महिषासुर मर्दिनी, विष्णु के शिल्प, वीरगल (hero stones), सती शिला, नंदी की प्रतिमाएँ, मंदिर से संबंधित शिलालेख आदि अवशेष प्रमुख हैं.

कालभैरवनाथ का मंदिर, तिर्थ बुद्रुक


भैरव, कालभैरवनाथ मंदिर, तिर्थ बुद्रुक
महिषासुरमर्दिनी, तिर्थ बुद्रुक

मैंने २०१५ में हैदराबाद में संपन्न पुरातत्त्व से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में तिर्थ बुद्रुक के इन पुरावशेषों सहित यहाँ के मध्ययुगीन अवशेषों पर शोधकार्य प्रस्तुत किया था.

वीरगल एवं नाग शिल्प, तिर्थ बुद्रुक

वीरगल (hero stone), तिर्थ बुद्रुक

नंदी, तिर्थ बुद्रुक

तिर्थ बुद्रुक से प्राप्त आद्य ऐतिहासिक अवशेषों का संबंध सातवाहनकाल से था. इस समय इंडो-रोमन व्यापार अपनी चरम सीमा पर था तथा व्यापारियों का आवागमन इस क्षेत्र में हुआ करता था. लगभग इसविसन की १ से ३री सदी में यहाँ चूना पत्थर एवं ईंटों से निर्मित स्तूप का निर्माण कार्य हुआ होगा. संभवतः समृद्ध व्यापर के चलते यह कार्य सफल हुआ था. अबतक दक्षिणापथ के इस व्यापारी मार्ग पर महाराष्ट्र में तेर के बाद भव्य वास्तु के अवशेष प्राप्त नहीं हुए थे. तीर्थ बुद्रुक के स्तुपावशेषों से यह बात सामने आ रही है कि तेर के बाद व्यापारी मार्ग पर तिर्थ बुद्रुक एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था, जो आगे जाकर सन्नती नामक स्थान से जुड़ जाता था, जबकि यह तेर इतनी विस्तृत बस्ती नहीं थी. हालाँकि इसी जिले के सिद्धेश्वर वडगाँव के सिद्धेश्वर मंदिर के पास सातवाहनकालीन एक स्थापत्य रचना प्राप्त हुई है. यहाँ पर इस काल से संबंधित ईंटें बड़ी संख्या में मिलती हैं.

संभवतः स्तूप का टीला, वडगाँव सिद्धेश्वर

तिर्थ बुद्रुक से प्राप्त शिल्प संभवतः गौतम बुद्ध के जीवन से संबंधित है. इसमें एक पुरुष एवं तीन स्त्रियों को दर्शाया गया है. 

स्तूप से जुड़ा चूना पत्थर में बना शिल्प 

हंसपट्टिका, तिर्थ बुद्रुक


इन शिल्पों के लिए प्रयोग किया गया सफ़ेद चूना पत्थर (limestone) दक्षिण महाराष्ट्र में नहीं मिलता. इसलिए अब यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह पत्थर सन्नती-शहाबाद के क्षेत्र से यहाँ व्यापारी मार्ग से लाया गया था. कनगनहल्ली के स्तूप को सजाने के लिए वहाँ से बड़ी तादाद में मिलने वाले सफ़ेद चूना पत्थर का ही इस्तेमाल किया गया था. सातवाहनकालीन अन्य शिल्पों एवं स्थापत्य रचना को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह स्तूप हीनयान मत से संबंधित रहा होगा. यहाँ के शिल्प अमरावती शैली में बनवाए गए हैं. यह स्थान अमरावती शैली में बने शिल्पों का एक महत्त्वपूर्ण उत्तरी केंद्र माना जा सकता है. अपितु, इस प्रकार के कुछ अवशेष तेर नामक स्थान पर भी मौजूद होने के कारण, अब तेर यह स्थान अमरावती शैली में बने शिल्पों के फैलाव की उत्तरी सीमा बताई जा सकती है. तिर्थ बुद्रुक और तेर के शिल्पों की शैली अमरावती होकर उक्त शिल्पों की रचना कनगनहल्ली और अमरावती से थोड़ी सी भिन्न दिखाई देती है. संभवतः इस पर स्थानीय कारीगरी का प्रभाव पड़ा हो.

संभवतः मोर की  आकृति, तिर्थ बुद्रुक


खंडित स्तूप (लाट) के अवशेष


प्राचीन टीले का एक हिस्सा, तिर्थ बुद्रुक



सातवाहनकालीन ईंटों से निर्मित दीवार, तिर्थ बुद्रुक


स्तूप संबंधित अवशेष, तिर्थ बुद्रुक

टीले का एक खुला भाग, तिर्थ बुद्रुक

सातवाहनकालीन स्थापत्य रचना के अवशेष उस्मानाबाद जिले में गड देवदरी, तेर, वडगाँव-सिद्धेश्वर एवं अपसिंगा में भी दिखाई देते हैं. इनमें से वडगाँव और अपसिंगा की स्थापत्य रचना बौद्ध-स्तूप से संबंधित होने के प्रमाण अब तक मौजूद नहीं हैं. 

गड देवदरी का प्राचीन टीला, गडदेवदरी

इन समृद्ध अवशेषों के मिल जाने से ऐतिहासिक दृष्टि से मराठवाड़ा के इस क्षेत्र का महत्त्व बढ़ चुका है तथा तिर्थ बुद्रुक यह स्थान सातवाहनकालीन एक बौद्ध केंद्र के रूप में वैश्विक पटल पर स्थापित होने में मदद मिली है.   

 



https://www.youtube.com/watch?v=uYsgUkxAFR8

बुधवार, २४ जून, २०२०

पूर्वमध्ययुगीन तेर

गणेश प्रतिमा, काळेश्वर मंदिर, तेर


इंडो-रोमन व्यापाराला उतरती कळा लागल्यानंतर अनेक व्यापारिक केंद्रे ओसाड पडू लागली, परंतु ती पूर्णपणे लयास गेलेली नव्हती. सातवाहन काळातील मराठवाडयातील तेर हे एक असेच ठिकाण, जेथे सांस्कृतिक, व्यापारिक व राजकीय घडामोडी नंतरच्या काळातही अव्याहतपणे सुरु होत्या. साधारणतः सहाव्या शतकापासून ते बाराव्या-तेराव्या शतकापर्यंत तेर परिसरात या घडामोडीविषयींचे अनेक पुरावे उपलब्ध पुरावशेषांतून दिसून येतात. यामध्ये प्रामुख्याने मंदिरे, शिल्पे, शिलालेख, वीरगळ इ. पुरावशेषांचा समावेश करता येवू शकतो. इ. सनाच्या चौथ्या शतकापासून पुढे सुमारे २०० वर्षे स्थानिक पातळीवर व्यापार सुरु असला पाहिजे. कारण याची परिणती म्हणून या भागात सुमारे सहाव्या शतकाच्या सुरुवातीला धाराशिव येथील जैन व चांभार लेणी खोदण्यात आलेली दिसतात. तेर येथील उत्खननात चौथ्या व पाचव्या कालखंडातील थर सु. वाकाटाक-चालुक्य ते पुढे मध्ययुगापर्यंतच्या काळाचा निदर्शक आहे. यावरून हे स्पष्ट होते की या कालखंडात येथे समृद्ध मानवी वस्ती अस्तित्त्वात होती.

तेर गावाच्या मधोमध स्थित त्रिविक्रम मंदिराविषयी अनेक विद्वानांनी आपापली मते मांडलेली आहेत. शां. भा. देव यांच्या मते ही वास्तू मुळात बौद्ध चैत्यगृहाची असून मागाहून येथे त्रिविक्रमाची मूर्ती स्थापित करून सभामंडप वगैरे बांधण्यात आले असावेत. या वास्तूच्या गर्भगृहाचा पृष्ठभाग अर्धवर्तुळाकृती असून त्यावरील छप्पर गजपृष्ठाकृती आकाराचे आहे. डॉ. माटे यांच्या मते अशा प्रकारची वास्तू पल्लव शैलीशी मिळती-जुळती असून ती हिंदू आहे. त्रिविक्रम मंदिरातील त्रिविक्रमाची मूर्ती खूपच आकर्षक असून मूर्तिकलेतील एक उत्तम उदाहरण आहे.

त्रिविक्रम मंदिर, तेर

तेर येथील उत्तरेश्वराचे मंदिर द्राविडी शैलीतील असून पूर्णपणे विटांचे आहे. शां. भा. देव यांच्या मते हे मंदिर सातव्या शतकातील असावे. या मंदिराची चौकट लाकडी असून कित्येक वर्षांनंतर आजही टिकून आहे. चौकटीच्या ललाटबिंबावर देव-देवतांची सुंदर शिल्पे कोरण्यात आलेली आहेत. या मंदिराचे वैशिष्ट्य असे की याच्या बांधणीत साच्यात बनविलेल्या अलंकृत विटांचा वापर केलेला आहे. 

उत्तरेश्वर मंदिर, तेर


उत्तरेश्वर मंदिरावरील कोरीव काम, तेर

संत गोरोबा काकांच्या समाधी मंदिराशेजारील काळेश्वर मंदिर, चालुक्य काळातले मानले जाते. हे मंदिर विटांनी निर्मित असून काळ आणि शैली उत्तरेश्वर मंदिराशी मिळती-जुळती आहे.

काळेश्वर मंदिर परिसर, तेर

या शिवाय तेर येथे सिद्धेश्वर, नृसिंह मंदिर, त्रिपुरांतकेश्वर, अमरेश्वर, रामेश्वर, निलकंठेश्वर मंदिर इ. मंदिरे आहेत. सिद्धेश्वराचे मंदिर त्याच्या शैलीवरून यादवकालीन म्हणजेच १३व्या शतकातील वाटते. सध्या या मंदिराचा सभामंडप, गर्भगृह व स्तंभ अस्तित्त्वात आहेत. स्तंभशिर्षांवरील कोरलेले भारवाहक आकर्षक आहेत. नृसिंहाचे मंदिर गावाबाहेर असून त्याची बरीच पडझड झालेली आहे. तेरणा नदी पत्रात दगडांचा वापर करून बांधलेले त्रिपुरांतकेश्वर मंदिर होते. अमरेश्वराचे मूळ मंदिर सध्या अस्तित्त्वात नसले तरी सध्या अस्तित्त्वात असलेले  प्राचीन शिवलिंग मूळ ठिकाणी दिसते. याशिवाय काळेश्वर मंदिर परिसरात अनेक लहान-मोठी तुलनेने जुनी शिवलिंगे आढळून येतात. ही सर्व शिवलिंगे कधीकाळी तेर परिसरात अस्तित्त्वात असलेल्या मंदिरांची आठवण करून देतात.

सिद्धेश्वर मंदिराचा सभामंडप, तेर

तेर येथील व्यक्तींना पूर्वमध्यकाळात किती महत्त्व प्राप्त होते, हे इ. स. ६१२ सालातील पश्चिमी चालुक्यांच्या एका अभिलेखावरून स्पष्ट होते. या शिलालेखात तेर येथील ‘जेष्ठशर्मन’ या प्रसिद्ध व्यक्तीचा उल्लेख आलेला आहे. राष्ट्रकुटांच्या इ. स. ६९३ च्या एका ताम्रपटातही तगरनिवासी ‘हरगण द्विवेदी’ यांना जमिनी दान दिल्याचा उल्लेख आहे. तेर येथील अकराव्या ते सोळाव्या शतकापर्यंतचे चार लेख ग. ह. खरे यांनी संपादित केले आहेत. यातील अकराव्या शतकातील कानडी भाषेतील शिलालेख त्रिविक्रम मंदिरात आहे. यात कलचुरी घराण्यातील महामंडलेश्वर ‘जोगमरस’ तसेच ‘वारीमल्लोज’ या शिल्पीचा उल्लेख आलेला आहे. बाराव्या शतकातील मराठी शिलालेख मारुतीच्या देवळाच्या पाराजवळचा असून यात उद्यापनाच्या निमित्ताने दिलेल्या दानाचा उल्लेख आहे. जिन बसदी येथे पार्श्वनाथाच्या सिंहासनावर चौदाव्या शतकातील शिलालेखात वार्धमानाच्या देवालयाचा जीर्णोद्धार केल्याचा तसेच पादुकादानाचा उल्लेख आहे.   

याशिवाय, तेर येथून पूर्वमध्ययुगीन कालखंडातील भरपूर मूर्ती-शिल्पे मिळालेली आहेत. यामध्ये विष्णू-नारायण, कार्तिकेय, भैरव व इतर देवी-देवतांची शिल्पे महत्त्वपूर्ण आहेत. तेर येथून प्राप्त झालेली बहुतेक शिल्पे येथील श्री. रामलिंगप्पा लामतुरे संग्रहालयात सुरक्षित ठेवण्यात आलेली आहेत. या संग्रहालयात तसेच काळेश्वर मंदिरात काही वीरगळ दिसून येतात. काळेश्वर मंदिरातील वीरगळांचा कालखंड प्राचीन असून त्यांच्या शैलीवरून ती यादवकाळाच्याही पूर्वीची वाटतात.

रगळ, तेर


शिलाहार राजे आपले मूळ तेरचे असल्याचे त्यांच्या शिलालेखात सांगतात. ते त्यांच्या नावासमोर  ‘तगर’ नावाशी संबंधित असलेल्या बिरुदावल्या लावीत. इ. स. ९९७ च्या शिलाहार घराण्यातील अपराजिताच्या शिलालेखात ‘तगरपुरपरमेश्वर’ असे बिरूद त्याने स्वतःला लावून घेतलेले आहे. इ. स. १०५८ मधील आणखी एका शिलालेखात शिलाहार घराण्यातील कराड शाखेच्या मारसिंहाने स्वतःला ‘तगरपुरवराधीश्वर’ हे बिरूद लावलेले आहे. याच लेखात या राजघराण्यातील ‘जतिंग’ या दुसऱ्या राजाचा उल्लेख ‘तगरनगरभूपालक’ असा केलेला आहे. ह्या भूभागावर शिलाहारांचा प्रत्यक्ष अंमल कधीच नसल्यामुळे ‘तगर’ हे फक्त त्यांचे मूळचे गाव असावे, असे दिसते. आजही उस्मानाबादजवळील पळसवाडी गावात ‘शेलार’ आडनाव असणारी कुटुंबे राहतात.  

धाराशिव आणि तेरचा निकटचा संबंध असावा असे कर्कंडचरिउ व बृहत्कथाकोश या दोन ग्रंथांमधील उल्लेखांवरून समजते. बृहत्कथाकोशात धाराशिव येथील जिन मंदिरातील मूर्तीचा उल्लेख आलेला आहे. ‘तेरापूर’ या गावाच्या दक्षिणेस धाराशिवच्या जंगलात या मूर्ती सापडल्याची माहिती यात दिली आहे. या ग्रंथाचा नायक ‘कर्कंड’ हा तेरापुर येथील एका व्यापाऱ्याचा मुलगा होता, असे सांगितले आहे. यावरून तेर येथील व्यापार अगदी दहाव्या शतकापर्यंत अस्तित्त्वात असावा असे दिसते. अकराव्या शतकातील कर्कंडचरिउ या ग्रंथातही अशा आशयाची माहिती दिलेली आहे.

तेराव्या शतकातील संतकवी गोरा कुंभार यांचे समाधिस्थळ तेरणा नदीकाठी असलेल्या काळेश्वर मंदिराजवळ आहे. संत गोरा कुंभार हे वारकरी संप्रदायात जेष्ठ संत समजले जात. यामुळे वारकरी संप्रदायाच्या दृष्टीनेही तेरचे महत्त्व अधोरेखित होते.

बाराव्या-तेराव्या शतकात तेर येथे एक जैन देवालय (बसदी) बांधण्यात आले, ते वर्धमान महाविराचे असून त्याचा जीर्णोद्धार शके १३१३ मध्ये केला, असे येथील एका शिलालेखावरून दिसून येते. तसेच कर्कंडचरिउ व बृहत्कथाकोश या ग्रंथांतील आशयावरून १०व्या शतकापुर्वीच जैन मत तेरमध्ये प्रभावी होते, असे दिसून येते.

जैन मंदिरातील जैन प्रतिमा, तेर

एकंदरीत, पूर्वमध्ययुगीन काळातही तेरच्या विकासाची घौडदौड सुरूच होती. येथील व्यक्तींना तसेच शिल्पींना इतरत्र मान-सन्मान मिळत होता. शिलाहार घराण्यातील राजे तेर निवासी असल्याचा स्वतःचा उल्लेख अभिमानाने करीत असत. सातवाहन काळानंतर बौद्ध धर्माचा प्रभाव ओसरल्यावर हे एक वैष्णव केंद्र म्हणून पुढे आल्याचे येथील पुरावशेषांवरून दिसून येते. पुढे तेराव्या शतकात तेरचा संबंध वारकरी संप्रदायाशी आल्याचा आपणास दिसून येतो. 

संत गोरा कुंभार मंदिराच्या भिंतीत लावलेली विष्णू प्रतिमा, तेर

जैन मताचा प्रभाव येथे संभवतः प्राचीन काळापासूनच असला पाहिजे, परंतु या संबंधीचे स्पष्ट पुरावे १०व्या शतकापासून काही ग्रंथांमधून मिळतात. पूर्वमध्ययुगात तेरची ओळख सातवाहन काळाइतकी मोठी नसली तरी, ती क्षेत्रीय पातळीवर अजूनही अबाधित राहिलेली दिसून येते.

सु. सातशे वर्षांच्या या कालखंडात बऱ्याच राजकीय, सांस्कृतिक, धार्मिक घडामोडी येथे घडून आल्याचे निदर्शनास येते. पूर्वमध्ययुगात राष्ट्रकूटांच्या राजधान्या ‘लत्तालूर’ (लातूर) व ‘मान्यखेट’, कलचुरींची राजधानी ‘मंगळवेढा’, चालुक्यांची राजधानी ‘कल्याणी’, यादवांची राजधानी ‘देवगिरी’, ‘अंबाजोगाई’ व तेरचे भौगोलिक स्थान लक्षात घेता, तेर आणि या राजवंशांचा घनिष्ट संबंध आलेला असावा. तेर परिसरातील सुपीक जमीन, तेरणेचे मुबलक पाणी, समृद्ध व्यापारी परंपरा, येथील समृद्ध घराणी व व्यापारी यामुळे तेर कित्येक वर्षे आर्थिकदृष्ट्या समृद्ध असे ठिकाण म्हणून नावलौकिक मिळवून राहिले असावे. धाराशिव व खरोसा येथील लेणी खोदण्यामागील प्रेरणेत तेरच्या परंपरागत वैभवाचा अप्रत्यक्ष प्रभाव असायला पाहिजे. खऱ्या अर्थाने तेरमुळेच दक्षिण मराठवाडयातील या प्रदेशाला प्राचीन व पूर्वमध्ययुगात खरी ओळख प्राप्त झाली, असे म्हटले तर वावगे ठरणार नाही.  

 

संदर्भ ग्रंथ

खरे, ग. ह., ‘तेर येथील चार शिलालेख’, भारत इतिहास संशोधक मंडळ, वार्षिक, वर्ष-१४, अंक ४. १९३४. पुणे.

दीक्षित, मो. ग., ‘तेर वस्तुसंग्रहालयातील पुरातन वस्तूंचा परिचय’, भारतीय इतिहास आणि संस्कृती, वर्ष ९, १९७२. मुंबई मराठी संग्रहालय, मुंबई.

देव, शां. भा. ‘तेर’, पुरातत्त्व-शोध-निबंधमाला, पुरातत्त्व व वस्तुसंग्रहालये विभाग, १९८७. मुंबई.

Mate, M.S. 1957, ‘Trivikram Temple at Ter’ Bulletin of the Deccan College Post-Graduate and Research Institute, Poona,Vol. XVIII, pp.1-4. 

 

शनिवार, २० जून, २०२०

पुणे परिसरातील योग-साधना व संबंधित शिल्पे

Travels and tourism, History and culture, Archaeology, Anthropology, Folk culture, Yoga, Hindi literature, Environment, Geography, Manuscripts, Iconography etc.

आधुनिक जीवनशैलीमुळे आरोग्यसंबंधीच्या निर्माण झालेल्या अनेक समस्या तसेच दिवसेंदिवस वाढत चाललेला ताण-तणाव, यांवरती उपाय म्हणून योगसाधनेकडे जग मोठया आशेने पाहत आहे. दैनंदिन जीवनात आरोग्य विषयीचे महत्त्व आपल्या पूर्वजांनी फार पूर्वीपासूनच ओळखले होते. यासाठी त्यांनी योगसाधनेला आपलेसे केले. अनेक ऋषी-मुनींनी योगविद्येच्या बळावर आपले व इतरांचे जीवन आरोग्यदायी बनविण्याचा प्रयत्न केला. जागो-जागी असणारे सांप्रदायिक मठ तसेच गुहा-कंदरांमध्ये ही साधना चालत असे. वरचेवर यात नवनवीन प्रयोग झाल्याने ही विद्या भरभराटीस आली. कित्येक प्राचीन मंदिरांवरती शिल्पकलेच्या रुपात आपल्याला याचे पुरावे मिळतात.


अर्ध-मत्स्येंद्रासन, ब्रह्मनाथ मंदिर, पारुंडे
आपला हा प्राचीन वारसा अनेक ग्रंथ व मौखिक परंपरेने तर जपला गेला आहेच, परंतु हा एवढया पुरताच मर्यादित न राहता शिल्पकलेच्या माध्यमातूनही जोपासण्याचा प्रयत्न झाला. योगविषयीची अनेक आसने, मुद्रा, प्राणायामांचे प्रकार शिल्पबद्ध केले गेले. पुणे परिसरात व जिल्ह्यात इतरत्र अशा प्रकारची शिल्पे व अवशेष आपल्याला पहावयास मिळतात.
आज पुणे शहरातील ‘अय्यंगार योग संस्था’ तसेच लोणावळ्यातील ‘कैवल्यधाम’ व ‘लोणावळा योग संस्था’ योगविद्येच्या प्रचार व प्रसारासाठी कार्यरत असल्या तरी, ही परंपरा पुण्यासाठी नवीन नाही. इसवीसन १७५४ ते १७७० या काळात सोमवार पेठेत बांधल्या गेलेल्या त्रिशुंड गणपती मंदिर व मठात योगविद्येची साधना केली जात असे. साधकांना योग्य प्रकारे साधना करता यावी म्हणून विशिष्ट खोल्यांची रचनाही येथे केली गेली होती. येथे ‘धुम्रपान’ नावाची एक विशिष्ट साधना होत असे. त्यामध्ये हठयोगाचे साधक स्वतःला छताला उलटे टांगून घेत व खाली निखाऱ्यामध्ये काही औषधी वनस्पती टाकल्या जात व त्यापासून निघालेला धूर ते नाकाद्वारे घेत असत. यामध्ये संभवतः दशनामी गोसावी पंथातील साधक हठयोगाची साधना करीत. येथे काही योगसाधकांच्या समाध्याही आहेत. अशा या योग-स्मारकाचे संवर्धन करून त्याचा विकास करणे अगत्याचे आहे.
पुण्यापासून साधारणतः ५४ किमी अंतरावर पिंपरी-दुमाला नावाचे गाव आहे. येथील सोमेश्वर मंदिरावर कुंडलिनी योग विषयीचे महत्त्व सांगणारे दुर्मिळ शिल्प आहे. सुमारे सातशे वर्षांपूर्वी हे मंदिर बांधले गेले. या मंदिराच्या प्रदक्षिणामार्गावर संभवतः आदिनाथांची एक अतिशय दुर्मिळ प्रतिमा आहे. आदिनाथ अर्थात शिव. यामध्ये ते समाधिस्थ योगीच्या रुपात साकारले गेले असून ते पद्मासनात बसले आहेत. त्यांचा उजवा हात ‘सूची’ मुद्रेत आहे. सर्वात वैशिष्ट्यपूर्ण गोष्ट म्हणजे शिल्पकाराने त्यांच्या डोक्यावर अर्धवट उमललेले कमळ दाखविले आहे. हे कमळ योग साधनेत खूप महत्त्वाचे प्रतिक मानले जाते. मानवी शरीरात कुंडलिनीरूपाने ‘शक्ती’ सुप्त अवस्थेत असते तसेच मस्तकातील सहस्रारांत शिवाचा निवास असतो. कुंडलिनीचा प्रवास मेरुदंडाजवळील मूलाधार चक्रापासून सुरु होऊन त्यानंतर स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धाख्य चक्र आणि आज्ञा चक्र अशा सहा चक्रांना ओलांडून सहस्रारांत संपतो. योगी ह्या कुंडलिनीरुपी शक्तीला जागृत करून सुषुम्ना नाडीच्या माध्यमातून शक्ती व शिवाचे मिलन सहस्रारांत घडवून आणतो आणि हे सहस्रार रुपी कमळ उमलले जाते अर्थात योग्यास परमानंदमय समाधी प्राप्त होते. असे हे अनन्यसाधारण शिल्प येथील मंदिरावर कोरण्यात आले आहे. पुणे परिसरात योगसाधनेचा प्रचार-प्रसार किती मोठ्या प्रमाणात झाला होता याचे हे उत्तम उदाहरणच होय. सोमेश्वर मंदिरांवरील या शिल्पांमध्ये नाथ संप्रदायातील इतर हठयोगीही दाखविले आहेत. यामध्ये मत्स्येंद्रनाथ व गोरक्षनाथांची शिल्पे या भागात दुर्मिळच म्हणावी लागतील. योगसाधनेच्या उज्ज्वल परंपरेमध्ये पिंपरी-दुमाला येथील मंदिरावरील हठयोगाच्या महान गुरूंची शिल्पे राष्ट्रीय संपदा ठरावीत अशी आहेत.

कुंडलिनी योग संबंधीचे शिल्प, पिंपरी-दुमाला
कुंडलिनी योगाचे ज्ञानेश्वरांनी आपल्या ग्रंथात भरपूर विवेचन केले आहे. आळंदी येथे इंद्रायणी काठी तर ८४ सिद्धांचा मेळा भरत असे. या सिद्धांपैकी काही सिद्ध हे हठयोगी होते. ज्ञानेश्वरांच्या परंपरेतील नाथ-योग्यांच्या समाध्या आजही ज्ञानेश्वर मंदिर परिसरात पहावयास मिळतात.
पुण्यापासून साधारणतः ५४ किमी अंतरावर प्रसिद्ध असणाऱ्या प्राचिन भुलेश्वर मंदिरातही सिद्धांची बरीच शिल्पे आहेत. त्यांना पद्मासन, सिद्धासन यांसारखी विभिन्न आसने व मुद्रांमध्ये दर्शविले आहे. किंबहुना येथील एक सुंदर शिल्प विशिष्ट अशा द्विपादशिरासनात असून साधकाने यात आपल्या पाठीमागे दोन्ही पाय एकमेकांत अडकविले आहेत. 
द्विपादशिरासन/पाशिनी मुद्रा, भुलेश्वर मंदिर
जुन्नरपासून साधारणतः १० किमी अंतरावरील पारुंडे गावातील ब्रह्मनाथ मंदिराच्या खांबांवरती विविध ध्यान-धारणा व आसनातील अनेक शिल्पे कोरण्यात आली आहेत. उर्ध्व-धनुरासन, गरुडासन, नौकासन, प्रसारित-पादोत्तानासन, गोमुखासन, पाद-पश्चिमोत्तानासन, अनंतासन, अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, क्रौंचासन अशा किती तरी आसनांचे प्रकार येथे कोरले गेले आहेत.
पाद-पश्चिमोत्तानासन, ब्रह्मनाथ मंदिर, पारुंडे
येथूनच पुढे हरिश्चंद्रगडावर प्रसिद्ध योगी चांगदेव यांनी ‘तत्त्वसार’ नावाचा ग्रंथ लिहिला होता. त्यामुळे हा परिसर एकेकाळी योग साधकांच्या गर्दीने फुलून गेलेला असावा असे दिसते. अशा या दर्जेदार वारशामुळे सांस्कृतिक, शैक्षणिक क्षेत्रांबरोबरच योगसाधनेच्या परंपरेतही पुणे परिसर व जिल्ह्याचे महत्त्व ठळकपणे दिसून येते.
योग विद्येचे जागतिक महत्त्व ओळखून या स्थळांचे व्यवस्थितरित्या संगोपन व संवर्धन होणे गरजेचे आहे. योगसाधनेच्या परंपरेत आपणासही असा प्राचीन वारसा लाभला आहे, याचा अभिमान सर्वांनी बाळगायला हवा. या अवशेषांचे अस्तित्त्व टिकून राहणे म्हणजे आपले व आपल्या पूर्वजांचे अस्तित्त्व टिकून राहण्यासारखे आहे. हा अनमोल ठेवा नाहिसा होण्याअगोदर त्याची माहिती सर्वदूर पोहोचवून त्याचे महत्त्व जगासमोर मांडणे गरजेचे आहे. संपूर्ण विश्व योगसाधनेला जवळ करीत असताना आपणही या निमित्ताने आपल्या पूर्वजांप्रमाणे योगविद्येला अंगीकारून आपल्या जीवनाचा अविभाज्य घटक बनवायला हवे. आपल्या भारतीय योगपरंपरेचे हे प्राचीन दुर्मिळ पुरावे निश्चितच संपूर्ण जगासाठी मार्गदर्शक व प्रेरक ठरतील व आपल्या पूर्वजांचे महान कार्य शिल्परूपाने बोलू लागतील.

मंगळवार, १७ मार्च, २०२०

धाराशिव येथील दुर्लक्षित चांभार लेणी (मराठी)


लेणी क्र.२, चांभार लेणी, उस्मानाबाद.
लेणे क्र. २, चांभार लेणी, धाराशिव (उस्मानाबाद).
उस्मानाबाद शहर व परिसरच नव्हे तर संपूर्ण उस्मानाबाद जिल्ह्यालाच समृद्धशाली ऐतिहासिक व पुरातत्वीय असा वारसा लाभलेला आहे. प्राचीन काळी सातवाहन-रोमन व्यापारी मार्ग याच प्रदेशातून जात होता. पुढे वाकाटकोत्तर काळ, चालुक्य, राष्ट्रकूट, उत्तर चालुक्य, यादव, बहामनी, आदिलशाही व निजाम काळात हा भाग एक अतिमहत्त्वाचा प्रदेश बनून राहिला. त्यामुळे साहजिकच प्राचीन लेणी, स्तूप, मंदिरे, शिल्प, किल्ले, गढी, वाडे, मठ, दर्गे, मस्जिद इ. अशी अनेक प्राचीन स्थळे जिल्ह्यात जागोजागी विखुरलेली आपणास आढळून येतात. आज हा जिल्हा ‘तुळजाभवानी मातेचा जिल्हा’ म्हणून संपूर्ण महाराष्ट्रात प्रसिद्ध आहे.  
जिल्ह्याचे मुख्य ठिकाण असलेले उस्मानाबाद शहर व परिसरात धाराशिव लेणी, हातलाई देवी टेकडी, चांभार लेणी, कपालेश्वर मंदिर, लाचंदर लेणी, हजरत ख्वाजा शमसुद्दीन गाजी दर्गा इ. स्थळे विशेष प्रसिद्ध आहेत. यांपैकी चांभार लेणीचे नाव आपल्यापैकी अनेकांनी ऐकले असले तरी, याचे महत्व व ऐतिहासिकता अजूनही अनेकांना माहित नाही.  
तत्कालीन धाराशिव परिसराचे सर्वप्रथम सखोल सर्वेक्षण जेम्स बर्जेस या एका स्कॉटिश विद्वानाने १८७५ च्या डिसेंबर महिन्यात केले. ते धाराशिव पंचक्रोशीतील चांभार लेण्यांसह अनेक ठिकाणी फिरले व विविध स्थळांच्या नोंदी नमूद करून घेतल्या. त्यांनी १८७८ साली लंडन येथून प्रकाशित झालेल्या ‘द अँटिक्वटीज इन द बिदर अँड औरंगाबाद डिस्ट्रिक्ट्स’ या आपल्या एका अहवालामध्ये चांभार लेणीची सविस्तर माहिती दिलेली आहे. त्यावेळी त्यांनी यातील एका लेण्याचा तलविन्यासही बनविला होता. 
भोगावती नदीच्या जवळच डाव्या बाजूला असणाऱ्या एका छोट्याशा टेकडीवर सुमारे दीड हजार वर्षांपूर्वी उत्तराभिमुख या हिंदू लेणी खोदण्यात आल्या. उस्मानाबाद शहरापासून दक्षिण-पश्चिमेला वैराग रस्त्याने जाताना या लेण्यांचे दर्शन होते. येथून पुढे डाव्या बाजूला पायवाटेने लेण्यांपर्यंत पोहोचता येते. वास्तविक पाहता येथे दोन स्वतंत्र लेणी खोदण्यात आलेली आहेत.
पहिल्या लेण्याच्या समोरील बराचसा भाग कोसळलेला असला तरी काही खोल्या व इतर खोदकाम सुस्थितीत आहे. लेण्याच्या पश्चिम दिशेला पूर्वाभिमुख द्वारावर नक्षीकाम केलेली एक खोली आहे. याच्या दोन्ही बाजूंना काही आकृती अस्पष्ट दिसतात. 
पश्चिमाभिमुख खोली, लेणे क्र. १. चांभार लेणी.

याच्या वरच्या बाजूला काही शिल्पकामांसाठी आखलेली ओळ दिसते. यांपैकी उजव्या हाताला फक्त गणेशाचे एक छोटेसे शिल्प कोरण्यात आलेले दिसून येते.
गणेश प्रतिमा (खंडित) लेणे क्र.१. (चांभार लेणी)/(सौजन्य: जयराज खोचरे)

जेम्स बर्जेसच्या मते हा शिल्पपट मुळात सप्तमातृकांसाठी आखलेला असावा. येथून थोडेशे पूर्वेला अजून एक खोली आहे. मुळात ती तुलनेने एका मोठ्या खोलीच्या मागे असावी, असे दिसते. या खोलीच्या द्वाराला तीन सपाट शाखा आहेत. जवळच चार स्तंभयुक्त ओबडधोबड काम दिसते. लेण्यासमोर पडलेला दगडांचा खच व लेण्याच्या भिंती दरम्यान अजून दोन खोल्या आहेत. त्यांपैकी एकात थोडेसे खंडित झालेले एक विशाल ‘शिवलिंग’ आहे. यामुळे येथे पूर्वीपासूनच शिवाराधना होत असावी, असे दिसून येते. या खोल्यांना लागून चार स्तंभयुक्त एक दुसरी खोली आहे. लेण्याच्या पूर्वेला शेवटी अजून एक मूर्तीविरहित खोली असून ती पश्चिमाभिमुख आहे. या लेण्याच्या समोरील एकूण भाग जवळपास १०० फुट रुंद आहे.

शिवलिंग, लेणी क्र. २. धाराशिव
शिवलिंग, लेणे क्र. १. धाराशिव.
या पहिल्या लेण्यापासून पूर्वेला थोड्याच अंतरावर वरच्या बाजूला, उत्तराभिमुख एक दुसरे हिंदू लेणे आहे. याची रुंदी २६ ते ३१.७ फुट तर खोली २५ ते २८.६ फुट भरते. या लेण्याची एकही भिंत सरळ व व्यवस्थितपणे खोदण्यात आलेली दिसत नाही. लेण्याच्या पुढचा भाग दोन अष्टकोनी खांबांनी युक्त असून दोन शिल्पविरहित अर्धस्तंभ दोन्ही बाजूंना आहेत. सभामंडपात दोन आडव्या ओळींमध्ये चार-चार असे मिळून एकूण आठ स्तंभ आहेत. यांपैकी मधल्या भागातील समोरील दोन स्तंभ १६ बाजूंचे, मागील ओळीतील मधले दोन अष्टकोनी, तर सभामंडपाच्या दोन्ही बाजूंचे चौकोनाकृती आहेत. स्तंभांचे शीर्ष साधारण आहेत. 
मंडप, लेणे क्र.२, चांभार लेणी, धाराशिव (उस्मानाबाद)
गर्भगृहाचे द्वार अलंकृत असून दोन्ही बाजूंना अर्धस्तंभ कोरण्यात आलेले आहेत. हे स्तंभ कर्नाटकातील बदामी लेण्यातील गर्भगृह, तसेच मुंबई जवळील घारापुरी येथील लेणी क्र. चार येथील प्रवेशद्वारांसारखेच आहेत.
या लेण्याचे गर्भगृह ७.१० x ७.८ फुट असून मधोमध एक ४.५ x २.८ फुटाची वेदी (उंच आसन) आहे. त्या वेदीच्या मधोमध एक फुटाचे चौकोनाकृती वेज आहे. या लेण्याचा इतर लेण्यांशी तौलनिक अभ्यास केल्यास हे दुसरे लेणे भगवान विष्णू किंवा दुर्गा अथवा महालक्ष्मी या देवतांना समर्पित असावे, असे जेम्स बर्जेस यांचे मत आहे.
लेणे क्र.२ चा तलविन्यास (सौजन्य : जेम्स बर्जेस)
जेम्स बर्जेसच्या मते चांभार लेणी हिंदू असून, ती सर्वसाधारणपणे सहाव्या शतकाच्या सुरुवातीस खोदण्यात आली असावीत. या लेण्यांच्या जवळच ‘लाचंदर’ नावाने ओळखल्या जाणाऱ्या अन्य लेणी असून, भोगावती नदीच्या आजूबाजूला खडकात काही खोदकाम केलेल्या खोल्या दिसून येतात.
या चांभार लेण्यांचे स्थान लयन स्थापत्य विकासाच्या दृष्टीने खूप महत्वाचे आहे. संपूर्ण भारतात आरंभिक काळात खोदण्यात आलेल्या हिंदू लेण्यांपैकी ही एक असून, येथे उस्मानाबाद जिल्ह्यातील सर्वात प्राचीन असे शिवलिंग आहे.  
लेणे क्र. २ समोरील आवार व सुंदर दृश्य
या प्राचीन शैव स्थळाचे संवर्धन व संरक्षण होणे गरजेचे आहे. लेण्यांची स्थिती अत्यंत शोचनीय असून त्यांच्या जपणुकीची योग्य ती व्यवस्था तात्काळ न केल्यास महाराष्ट्राच्या प्राचीन वैभवाचा हा मौल्यवान ठेवा नष्ट होण्याची शक्यता आहे. लेण्यांची दुर्दशा नैसर्गिक आणि मानवी आपत्तीमुळे झाली आहे. हा वैभवशाली वारसा उस्मानाबादकरांनी व शासनाने जपायला हवा. तसेच या शैव-पीठाचे पुनरुज्जीवन करायला हवे. सर्वांनी एकत्र येवून उस्मानाबाद शहराचा उज्ज्वल इतिहास जगासमोर मांडण्याची आवश्यकता निर्माण झालेली आहे. असा हा अनमोल सांस्कृतिक ठेवा भावी पिढी समोर ठेवण्याच्या आतच नामशेष होवू नये, म्हणून लेणी संवर्धनाचे पवित्र कार्य हाती घ्यायला हवे. आपण सर्वांनी आपले व आपल्या पूर्वजांचे अस्तित्व टिकवून ठेवल्यास आपल्या उज्ज्वल परंपरेचे खऱ्या अर्थाने रक्षण होणार आहे.